Punrutthan
पुनरुत्थान

499.00770.00

Author(s) — Leo Tolstoy
लेखक  — लेफ़ तलस्तोय

Translator(s) — Bhisham Sahni
अनुवाद  — भीष्म साहनी

Editor(s) — Anil Janvijay
सम्पादक  — अनिल  जनविजय

| ANUUGYA BOOKS | HINDI | Total 400 Pages | | 6.125 x 9.25 inches |

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Description

पुस्तक के बारे में

इस उपन्यास के नाम ‘पुनरुत्थान’ से ही यह जाहिर हो जाता है कि इनसान यदि चाहे तो कभी भी उसका पुनरुत्थान हो सकता है। कोई इनसान ऐसा नहीं होता, जिसे यह एहसास न हो कि सही क्या है और गलत क्या है। अपनी काम वासना की तृप्ति के लिए चन्द सिक्कों के बदले हम किसी भी निर्दोष, निष्कलंक व मासूम लड़की की ज़िन्दगी से खेल जाते हैं और ये भी भूल जाते हैं कि हमारे इस गुनाह की कितनी बड़ी सज़ा उस मासूम को इस समाज में भुगतनी पड़ती है।
हमारे यहाँ भारत में तो यह तक सोचा जाता है कि घर की बहू-बेटियों के सुरक्षित रहने के लिये वेश्यालय का बने रहना बेहद ज़रूरी है यानी हमारा घर सुरक्षित रहे, बेशक दूसरे के घर में आग लगे, हमें क्या फ़र्क पड़ता है।
निख़ल्यूदफ़ नामक एक सम्भ्रान्त रूसी युवक ने भी अपनी प्रेमिका कत्यूशा के साथ ऐसी ही हरकत की। उसने कत्यूशा की अस्मत लूटने के बाद उस मासूम लड़की के शरीर की क़ीमत के रूप में चन्द रूबल जबरन उसकी जेब में ठूँस दिए और फिर हमेशा के लिए उसे छोड़ दिया। वह लड़की ज़िन्दगी की तमाम मुश्किलों से गुज़रते हुए आख़िर में एक चकले में पहुँच गई। और एक दिन उसके किसी अमीर ग्राहक ने उस पर चोरी का झूठा इल्जाम लगा दिया और उसे अदालत के समक्ष पेश किया गया। संयोग से निख़ल्यूदफ़ उस अदालत की ज्यूरी का मेम्बर था। वहीं उसकी मुलाक़ात फिर से कत्यूशा के साथ हुई जो अब मास्लवा बन चुकी थी। अदालत ने फिर निख़ल्यूदफ़ की ग़लती की वजह से उसे कठोर श्रम और निर्वासन की सज़ा दी । परन्तु तब तक निख़ल्यूदफ़ को अपनी ग़लतियों का एहसास हो गया। उसकी अन्तरात्मा जाग गई। उसने अपनी ग़लतियों का प्रायश्चित करने और कत्यूशा को एक नई ज़िन्दगी देने की ठान ली और इसके लिए कत्यूशा से विवाह करने का फ़ैसला किया।
फिर शुरू हुई कात्युशा को अन्य कैदियों के साथ साइबेरिया भेजने की ज़िद-ओ-जहद, जिसमें निख़ल्यूदफ़ हर क़दम पर कत्यूशा के साथ चलता रहा। इसके साथ-साथ वह उसकी सज़ा कम कराने की कोशिशों में भी जुटा रहा। उसने देखा कि जेल के अधिकारियों से लेकर निम्न स्तरीय कर्मचारी तक सब कैसे क़ैदियों के साथ जानवरों की तरह बर्बरता से पेश आते हैं। उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि मुजरिम को सज़ा तो उसे सुधारने के लिए दी जाती है, लेकिन जेल व्यवस्था और उसकी क्रूरताएँ मुजरिम को और ज्यादा क्रूर बना देती है।

…इसी पुस्तक से…

 

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