







Patthar (Collection of Short) / पत्थर (कहानी संग्रह)
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पुस्तक के बारे में
नयी शताब्दी के दूसरे दशक में जो युवा लेखक मौजूदा दौर की सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक परिस्थितियों की समझ और ताजा अनुभवों के साथ कथालेखन के परिदृश्य में उभरकर सामने आये हैं, नीरज वर्मा उनमें महत्वपूर्ण और प्रतिष्ठा सम्पन्न नाम हैं। इस दौर के कई कथा लेखकों की कहानियों से भिन्न नीरज वर्मा की कहानियाँ भावुकता और भावावेश अतिरेक के दायरों से बाहर निकल यथार्थ बोध से सम्पृक्त होने की जद्दोजहद की कहानियाँ हैं और इस अर्थ में ये प्रेमचंद की यथार्थवादी कथाधारा की अद्यतन कड़ियाँ हैं। इन कहानियों में ब्योरों और विवरणों की जो सघन बुनावट दिखायी पड़ती है, वह इन कहानियों को दृश्यात्मकता की समृद्धि प्रदान करती है। इन कहानियों में जो कुछ मौजूद है, उसे सिर्फ संवेदना के स्तर पर महसूस ही नहीं किया जा सकता है, उसे सामने ‘होते हुए’ या ‘घटते हुए’ भी देखा जा सकता है। ‘पत्थर’, ‘मातमपुर्सी’, ‘धुंध’, ‘गुम होते लोग’, ‘वार्ड न. 24’, ‘आज का दिन यार के नाम’ नीरज वर्मा के इस पहले संग्रह की चिरस्मरणीय कहानियाँ हैं। इनकी पठनीयता रेखांकित करने योग्य है।
– शंकर,
संपादक ‘परिकथा’
एकबारगी कितनी अच्छी लगती थी, उसे अपने भीतर से उठती हुई कच्चे आम की भीनी-भीनी सुगन्ध। पर डर भी तो खूब लगने लगा था। कितना डर के तो साझा की थी अपनी माँ से उस खुशबू के एहसास को। कंचन कितना तो झुँझलाई थी। दो दिनों तक घर में खूब झन्न-पटक हुआ। उसने रुई के फाहों से मटमैले बालों को यूँ ही छोड़ दिया था। दो दिनों तक तो कुछ खाया-पिया भी नहीं था। शिवानी के पिता की मृत्यु के वक्त भी कंचन ने ऐसा ही कुछ किया था। लेकिन उस वक्त उसकी आँखे बच्चों के लिए अतिरिक्त स्नेहिल हो गयी थीं। हमेशा की तरह सिन्हाइन ने इस बार भी बात को सम्हालने का भरसक प्रयास किया था। वैसे भी शिवानी को लेकर कंचन औरों से ज्यादा चिन्तित रहा करती थी। क्योंकि एक तो गरीबी में जि़न्दगी गुजारना ऊपर से बिना बाप की बेटी। शिवानी का नाक-नक्श भले तीखा था पर कायस्थों की नज़र दहेज पर ही टिकी रहती है। लड़का भले चपरासी हो लेकिन उसका बाप मूँछों पर ताव दिये ऐसा ऐंठा रहता है जैसे बेटा कलेक्टरी कर रहा है। वैसे वर्माजी कोई बड़े ओहदेदार तो थे नहीं, मामूली क्लर्क ऊपर से महँगाई की मार। दोनों ने बेटे के लिए जाने कितने मन्दिरों में माथा पटका, घर के दरवाजे पर कितने नारियल लाल कपड़े में बाँधकर लटकाये। गंडा-तावीज, मान-मनौवल सब कुछ आखिर में भगवान ने भी हारकर ढकेल दिया था पिल्लू को…। कितना अजीब नाम है न पिल्लू, उसकी पिलपिली देह की वजह से ही उसकी दादी ने उसका नाम पिल्लू रखा था। पिल्लू था भी पिल्लू ही, उसका बन्द दबा हुए जबड़ा आगे की ओर निकला हुआ था। और बिल्ली जैसी उसकी आँखें अनवरत बहा करती थीं। उसके होने न होने का एहसास कंचन के अलावा किसी को नहीं था। वह तो बस पड़ा रहता था किसी कोने में अपने होने और न होने के बीच जद्दोजहद करता हुआ। वह दिन न होता तो उसके होने का एहसास भी नहीं होता। उस दिन उसका होना था भी जरूरी क्योंकि अपने घर का वही तो एकमात्र मर्द था। और मर्दवादी समाज में मर्द का काम मर्द ही कर सकते हैं, चाहे जैसे भी करें। अन्तिम यात्रा में पिल्लू की बहन तो जा भी नहीं पाई थी। पिता के दाह-संस्कार में कितनी कठिनाई हुई थी पर किया तो पिल्लू ही था, भले जलती हुई लकड़ी को नाई और पंडित ने मिलकर जबरदस्ती घुसेड़ दिया था, मृतक के मुँह में। लोमम्यं स्वाहा।
…इसी पुस्तक से…
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