Description
पुस्तक के बारे में
…जिससे नाक को तकलीफ हो रही थी, तो दिमाग को परेशानी, फेफड़ों को घुटन और दिल का हाल पता नहीं… पर ऐसी बेचैनी हो रही थी कि लग रहा था, चलती ट्रेन से कूद जाऊँ। मगर यह सम्भव नहीं था। उन तमाम वाकयात की तरह, जो कई बार हम करना चाहते हैं, पर कर नहीं पाते। एक शब्द– कम्प्रोमाइज के साथ एडजस्ट कर लेते हैं। राहत मिल जाती है, कुछ न कर पाने पर दिल की हताशा से। हाथ मलने के मलाल से, मन की निराशा से। शायद मैं कवितामय हो रही हूँ। यह बदबूदार जगह कोई शब्दों के जाल में उलझने की है क्या…?
दिल्ली से अलीगढ़ जाने वाली लोकल का महिला डिब्बा था और जाहिर है मैं भी उस डिब्बे में सफर में थी। मेरी बेटी तनु के मेडिकल प्रवेश परीक्षा के लिए हम अलीगढ़ जा रहे थे। दिल्ली से जब सफर शुरू हुआ था, तब सोचा नहीं था कि इतनी परेशानी होगी। वैसे सोच कर भी करना क्या था। हमारी सीमाएँ, हमारी गतिविधियों को निर्देशित करती जाती हैं। हमारे क्रिया-कलाप वैसे ही घटित होते जाते हैं। बेटी के साथ बैठी मैं कुढ़ रही थी। तभी मेरी छठी इंद्रिय थोड़ी सक्रिय हुई। आभास हो रहा था जैसे कोई परिचित हवा आसपास बही हो। मानो कोई अपना इस भीड़ में मौजूद हो। अलीगढ़ की इस ट्रेन में कौन अपना हो सकता है? सामने की सीट पर बुरके में ढंकी एक दुबली-पतली महिला मुझे घूरे जा रही थी, मानो मुझे पहचानने की कोशिश कर रही हो।
…इसी पुस्तक से…