







Jharkhand ke Aadivasiyon ka Sankshipt Itihas झारखंड के आदिवासियों का सक्षिप्त इतिहास
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Author(s) — Vinod Kumar
लेखक — विनोद कुमार
| ANUUGYA BOOKS | HINDI| 175 Pages | 2019 |
| 5.5 x 8.5 Inches |
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Description
Description
पुस्तक के बारे में
सन् 2005 में मेरी एक किताब ‘आदिवासी संघर्षगाथा’ के नाम से प्रकाशित हुई थी। यह किताब उसी पुस्तक का संशोधित और परिवर्धित रूप है जिसमें आदिवासी राष्ट्रीयता बनाम झारखंड राज्य, धनकटनी आंदोलन, माओवाद का प्रवेश और विस्तार, नव गठित राज्य में आदिवासियों की स्थिति आदि चैप्टर जोड़े गये हैं। पुस्तक को तैयार करने में मुख्य रूप से 1902 से 1910 के बीच छोटानागपुर में चले सर्वे सेटलमेंट आपरेशन की फाईनल रिपोर्ट से मदद ली गई है जिसे तत्कालीन सेटलमेंट अफिसर और इंडियन सिविल सर्विस के अधिकारी जे. रीड ने तैयार किया था। कवर का फोटो मेरे मित्र कुमार चंद्र मार्डी के गोड़ग्राम, पोटका, सिंहभूम, स्थित घर का है जहां 1978 के सितंबर माह की एक दुपहरी मैं पहुंच गया था और कुछ वर्ष रहा था।
— लेखक
‘‘गैर आदिवासी समाज ने आदिवासी क्षेत्र को अपना आंतरिक औपनिवेश बना कर यहां के श्रम और खनिज संपदा का भीषण दोहन और शोषण तो किया ही, अपने ही इलाके में उन्हें अल्पसंख्यक बना दिया। वैसे तो अंग्रेजों के जमाने में ही आदिवासी क्षेत्र में बहिरागतों का बडे पैमाने में प्रवेश हो चुका था और 1901 की जनगणना में आदिवासियों मूलवासियों की आबादी लगभग 46 प्रतिशत रह गयी थी, लेकिन आज उनकी आबादी झारखंड क्षेत्र में महज 26 प्रतिशत रह गयी है और हालत यह कि अब बड़ी बेशर्मी से जनजातीय क्षेत्रों को फिर से गठित करने की मांग होने लगी है.’’
अनुक्रम
दो शब्द
1. कौन हैं आदिवासी?
2. झारखंड में अँग्रेजों का प्रवेश
3. कोल विद्रोह
4. संथाल विद्रोह
5. बिरसा विद्रोह
6. आदिवासी राष्ट्रीयता बनाम झारखंड राज्य
7. धनकटनी आंदोलन : महाजनी शोषण का मकड़जाल
8. झारखंड बनाम लालखंड
9. एमसीसी का प्रवेश
10. झारखंड अलग राज्य का संघर्ष
11. अंततः झारखंड, मगर खंडित
लेखक के बारे में
विनोद कुमार का समाज और जनसंघर्षों से गहरा लगाव रहा है। जेपी के नेतृत्व में हुए छात्र आंदोलन से आपने विषम भारतीय समाज की सच्चाइयों को समझा और सामाजिक बदलाव के सपने को मूर्त रूप देने के लिए झारखंड के आदिवासी इलाके को अपना ठिकाना बनाया। इसके बाद प्रिंट मीडिया में चले आए और प्रभात खबर के साथ जुड़कर जनपक्षीय पत्रकारिता का अर्थ ढूंढने लगे। यहां भी अखबार प्रबंधन के साथ मुठभेड़ें हुई और अंततः पत्रकारिता छोड़ दी। संघर्ष के इस दौर में देश की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में लिखा। देशज सवालों पर रांची से प्रकाशित ‘देशज स्वर‘ मासिक पत्रिका के संपादक भी रहे जिसके आदिवासी-देशज विषयक अंक खासे चर्चें में रहे। बहरहाल, पत्रकारिता में रिपोर्टिंग और मीडिया के दोहरेपन से संघर्ष की लंबी पारी खेलने के बाद अब उपन्यास लिख रहे हैं। झारखंड आंदोलन पर ‘समर शेष है’, ‘मिशन झारखंड’ और ‘रेडजोन’ उनके तीन चर्चित उपन्यास हैं। मौजूदा झारखंड और आदिवासी नेतृत्व व सवालों पर हिंदी में उनकी ये तीनों औपन्यासिक कृतियां उल्लेखनीय सृजनात्मक दस्तावेज हैं। इसके अतिरिक्त वे छिटपुट कहानियां भी लिखते रहे हैं और बार-बार आदिवासी गांवों की ओर लौटते रहे हैं।
प्रकाशित कृतियां—
l समर शेष है, 1998, (उपन्यास)
l मिशन झारखंड, 2006 (उपन्यास)
l रेड जोन, 2015 (उपन्यास)
l आदिवासी जीवन जगत की बारह कहानियां, एक नाटक, 2016
अन्य किताबे—
l आदिवासी संघर्ष गाथा, 2005
l विकास की अवधारणा, 2015
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