







Aadha Sach / आधा सच -Hindi Novel
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पुस्तक के बारे में
“हे भगवान झिपिर-झिपिर बूँदाबाँदी तो आज जी का जंजाल बनी हुई है। खलिहान भीग गया तो सब सत्यानाश समझिए।” बोदकू अकबकाया था, क्योंकि धान की कटाई हो चुकी थी, और खेत रेहन रखने के बाद बोदकू अपनी ही जमीन पर अधबटाईदार हो गया था। वह भी एहसान ही समझिए क्योंकि चन्देसर की घरवाली तो साफ मना ही कर दी थी पर बचपन का दोस्त होने की वजह से चन्देसर मान गया था। उस पर भी शर्त यह कि खाद-बीज, बैल, जोताई, सब का मूल्य देने के बाद उपज में आधा देना होगा। चन्देसर थोड़ा सीधा था इसलिए अधबटाई के लिए खेत दे भी दिया, वर्ना रेहन रखने के बाद कौन काश्तकार दाना भर भी उपज छोड़ता है।
बोदकू का कूढ़ना भी जायज ही था क्योंकि मंगली हिरनी जैसी बकरी बेची थी तब कहीं जाकर ट्रेक्टर पर लद कर धान धान कोठार में आ पाया था। ‘दहीजरा कसाई मजबूरी जान कर डेढ़ हजार में ही ले गया, नहीं बाजार में पाँच-सात हजार से कम में क्या बिकती।’ बड़बड़ाते हुए मंगली सिर से सरक आए पल्लू को खींचते हुए कोठार में गंजाए धान को कुछ पुराने प्लास्टिक और एक जकड़ाए हुए तिरपाल से धान के गांज को ढांकने के लिए दौड़ी थी। इधर नीम के जंगखाए पेड़ से बँधी सवनी पानी की बौछार से अनखा रही थी। देखते-देखते बूँदाबाँदी झाँय-झाँय बरसात में बदल गयी थी। जिसे देख कर खलिहान में उकड़ू बैठा बोदकू फफक रहा था। बेमौसम बरसात से उसकी देह झुलस रही थी। खाद-पानी के अभाव में उपज का अलग तीन-पाँच हुआ पड़ा है। और अब अचानक हुई बरसात से कोठार में गंजाया धान भीग गया तो सड़ जाएगा।
बोदकू को लगा यदि धान भीग कर बरबाद हो गया तो सरकारी चावल से पेट तो जैसे-तैसे भर जाएगा लेकिन कपड़ा-लत्ता, दवा-दारू के लिए भीख माँगने की नौबत आ जाएगी। चन्देसर की घरवाली ब्याज के लिए अलग सिर पर चढ़ी रहती है। इधर मंगली के जी में हुलस था अबकी फसल ठीक-ठाक हुई तो मीरा को ससुराल पठा देगी। जब से मीरा बारहवीं पास की है सर पर बोझ सा लदा रहता है। लेकिन कहाँ मंगली का सपना तो हमेशा स्याह सफेद होता रहता है। सिर पर झर कर फटे आँचल से झाँकते केशपुंज काले से तांबई होते चले गए, लेकिन गम के काले मेघ आज भी उसी गति से जीवन की छानी पर बरसा करते हैं। आज बरसात की आपाधापी में कुछ भी नहीं सूझ रहा था। आँधी-पानी की तो कहिए मत बाँस के मयार और उस पर जरजराए कंडियों ने जी तोड़ प्रयास किया, पर पवन वेग कहाँ मानने वाला था। सब उलट-पलट कर रख दिया। बोदकू ने पानी-बरसात तो खूब देखा था पर जनवरी महीना में इतना हाहाकर पहली बार देख रहा था।
डिडिंग-धिधिंग-डिंग-धिधिंग मांदल की विकराल होती ध्वनि के साथ हू-हू-हू की पाश्र्व से आती क्रंदन ने बोदकू को भीतर तक कसैला कर दिया था। दल से अलग होने के बाद बंडा थोड़ा आक्रामक हो गया था। वैसे भी उसकी आदत थी साल-छमाही में एक बार सिदरा जरूर आता। मानो सिदरा से उसके पुरखों का कोई रिश्ता जुड़ा हुआ हो। इधर बंडा की आहट होती नहीं कि गोधन की हाँक शुरू हो जाती।
“अपने-अपने घर से बाहर निकल जाओ होऽऽ बाल-बच्चा, बर्तन भांड़ा लेकर बाहर निकलो होऽऽ, जल्दी-जल्दी बाहर निकलो होऽऽ बंडा महुवा खाकर मात गया है होऽऽ।” गोधन की हाँक सुनते ही लोग थाली-डंडा पीटते बम-पटाखे फोड़ते हू-हू करते अपने अपने घरों से निकल पड़ते थे। लेकिन अबकी बार गजब हो गया था। दिलबासो गन्ना काटने वाली दरांती लेकर तेज कदमों से अपने गन्नाबाड़ी में कूद पड़ी थी। वो लगातार चीख रही थी– “अब जान रहे चाहे जाए मैं बंडा को नहीं छोड़ने वाली। कर्जा काढ़ कर गन्ना लगाई हूँ रात को रात और दिन को दिन नई समझी अगर बंडा ने मेरा एक भी गन्ना उखाड़ा तो उसकी बोटी-बोटी काट डालूँगी।”
“अरे रुक जा पगली जान देने का इरादा है का।” वन-परिसर का बीट गार्ड पीछे से दौड़ा था।
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