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Kachpachiya – कचपचिया – Collection of Selected Hindi Stories

Original price was: ₹299.00.Current price is: ₹250.00.

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Language: Hindi
Pages: 200
Book Dimension: 5.5″x 8.5″

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बकुए

पिछले कई महीनों से माँ, बाबा से जिद कर रही थी कि उन्हें अपने घर में बकरी पालनी है। परन्तु बाबा किसी ना किसी बहाने से माँ को टाल रहे थे। माँ के मायके में गाय, बकरी, मुर्गी सब पाली जाती हैं मगर माँ को बकरी ही पसन्द है।
बाबा माँ को समझाते हुए कहते थे, “अरे भाई, हम गरीब कहाँ हैं, जो बकरी पाले।”
माँ तर्क भी ऐसे-ऐसे देती थी कि कभी-कभी बाबा भी निरूत्तर हो जाते थे।
माँ कहती थी– “गाँधी जी क्या गरीब थे जो अपने आश्रम में बकरी पालते थे और उसका दूध भी पीते थे। आपने गाँधी जी के जितनी तो दुनिया नहीं देखी है।”
वो समय भारत की नयी-नयी आजादी का था और गाँधी जी सबके पिता समान थे। बाबा इमोश्‍नल हो जाते थे।
माँ से कहते– “गाँधी जी से हमारा क्या मुकाबला, ना हम में से कोई गाँधी हो सकता है।”
माँ उसी मासूमियत से बाबा से आग्रह करती थी और कहती– “कम-से-कम हम गाँधी जी की तरह एक बकरी तो पाल ही सकते हैं।”
“अच्छा सोचेंगे,” कह के बाबा माँ को शान्त कर देते थे। हफ्ते-दस दिन बाद माँ को फिर बकरी की याद आती थी और वो फिर बाबा से बकरी की बात छेड़ देती थी। खासतौर पर जब भी माँ शनिवार की हाट जाती थी तो वहाँ बकरी के बच्चे बिकते देखकर उनकी बकरी पालने की इच्छा प्रबल हो जाती थी। वो वहीं खड़े होकर बड़ी हसरत भरी निगाहों से बकरी के मेमनों को देखती और कुछ देर यूँही मौन खड़ी रहती थीं।
बकरी बेचने वाला कहता– “मैडम, आप एक बच्चा खरीद लो।”
माँ अपनी हसरत छुपाकर कहती– “अरे भाई, बकरी पालना बड़ा मुश्किल काम है।”
“कुछ मुश्किल काम नहीं है मैडम, आपके घर में जो भी साग-सब्जी के छिलके बचते हैं वो इसे खाने को दे दीजिए वरना घर के बाहर छोड़ दीजिए ये खुद ही घास चर लेगी।”
माँ मेमने को प्यार से सहलाती, पुचकारती और बकरी वाले से कहती– “मगर चराने कौन ले जाएगा?”
बकरी वाले के पास हर प्रश्‍न का उत्तर होता था। “मैडम, बस दो दिन बकरी को घर पर बाँध कर रखो। सुबह-शाम घर का बचा हुआ साग-सब्जी या उसका छिल्का खाने को दे दो। थोड़ा कच्चा चना और गेहूँ भी खाने में दे सकते हैं। उसके बाद अपनी बकरी को घर से अकेला छोड़ दीजिए। ये खुद ही पेट भर चारा चर के आपके घर वापस आयेगी। जिस दरवाज़े से बाहर निकालिएगा ये उसी दरवाज़े से घर के अन्दर आयेगी। आप अपनी बकरी का कोई नाम रख लीजिए। कुछ दिन तक उसी नाम से उसे पुकारिए। अगर कभी जंगल की घास चरते-चरते दूर भी निकल गयी तो उसे उसी नाम से पुकारने पर वो दौड़ी चली आयेगी।”
“अच्छा आज रहने दो। बच्चों के बाबा से पूछ लें फिर अगले शनिवार आकर बकरी के बच्चे आपसे खरीद लेंगे।”
“अच्छा मैडम,” जैसी आपकी मर्जी कह कर बकरी वाला दूसरे ग्राहक को अपनी बकरियों की खूबियाँ बताने लगता था।
दुखी मन से माँ घर वापस आती थी। मुझे पता था कि आज शाम बाबा की खैर नहीं है। माँ आज शाम को ज़रूर बाबा से बकरी की चर्चा करेगी। यही हुआ भी, शाम की चाय पर माँ ने बाबा से कहा कि “लोग कुत्ते पालते हैं। बिल्लियाँ पालते हैं। खरगोश पालते हैं और तोता-मैना भी पालते हैं तो मैं बकरी क्यों नहीं पाल सकती हूँ।”
बाबा आये दिन माँ की बकरी कथा से ऊब चुके थे।
थोड़ा खिसिया के बाबा ने माँ से कहा– “भलमानस, कुत्ता, बिल्ली पालना तो आम बात है। मगर बकरी पालोगी तो लोग क्या कहेंगे? हमारे पड़ोसी, हमारे दोस्त, सब हम पर हँसेंगे। तुमने पूरी काॅलोनी में किसी को बकरी पालते देखा है सिवाय गरीबों के। कुत्ते, बिल्ली पालने से आपकी हैसियत का भी अन्दाजा होता है।”
“तो क्या कुत्ते, बिल्लियाँ बताते हैं कि “कौन अमीर है? कौन गरीब है? ये तो अपने-अपने शौक की बात है।” माँ अपना तर्क रखते हुए कहती–“मेरे अब्बा के घर पर गाय, बकरी, मुर्गी सभी पल रही हैं। गाँव में अब्बा की हैसियत क्या कम है।”
बाबा माँ को समझाते हुए कहते– “अरे भाई, तुम्हारे अब्बा को मैं कहाँ कुछ कह रहा हूँ। मैं तो यहाँ के हिसाब से आपको समझा रहा हूँ। दरअसल मेरे कहने का मतलब है कि बकरियाँ गन्दगी बहुत फैलाती हैं।”
“तो क्या कुत्ते, बिल्ली, खरगोश गन्दगी नहीं फैलाते हैं।”
बाबा झल्ला के कहते– “आपको समझाना बहुत मुश्किल है। सोचूँगा इस बारे में,” कहते हुए बाबा हाथ में चाय का कप लिए हुए दूसरे कमरे में चले जाते थे।
माँ उदास होकर रात का खाना बनाने की तैयारी करने लगती थी। बकरी का मुद्दा आते ही माँ-बाबा के बीच अच्छा माहौल नहीं रहता था। बाबा के सारे तर्क माँ के सामने बेकार साबित होते थे। उस रात माँ हम बच्चों के कमरे में सोती थी। हम बच्चों को अपने पास सुलाकर माँ कभी-कभी खामोशी से रोती भी थी।
मुझे पता था कि आज भी माँ हम बच्चों के साथ सोएँगी। पाँच जनों का ये परिवार है। माँ-बाबा के अलावा बच्चों में सबसे बड़ी मैं हूँ। पाँचवीं में पढ़ती हूँ। फिर मेरे दो भाई फरहान और फैजान हैं। फरहान कक्षा तीन और फैज़ान नर्सरी में पढ़ रहा है। हम सब यहाँ के सरकारी मिडिल स्कूल में पढ़ रहे हैं। मैं बहुत समझने की कोशिश करती हूँ कि आखिर बाबा मम्मी को इतना छोटा सा गिफ्ट लाकर क्यों नहीं दे देते हैं? मगर ये बात मेरी समझ से परे थी।
एक दिन मैं खुद ही पूरी कालोनी का चक्‍कर लगाकर आयी। जिनके घरों में आना जाना नहीं था उन के घर का भी मुआयना किया। मुझे भी कही ऐसा एक घर नहीं मिला जिनके घर में बकरी पाली जाती हो। इसका मतलब बाबा सही कह रहे थे कि यहाँ के लोग कुत्ता-बिल्ली तो पालते हैं मगर बकरी नहीं। मैंने माँ को भी यही बात बताई।
माँ का जवाब था कि “मिज़ला बेटी, अगर यहाँ कोई बकरी नहीं पालता है तो हम भी नहीं पाल सकते हैं। ये तो कोई बात नहीं हुई। सब के अपने-अपने शौक होते हैं। जिस तरह हम दूसरों के शौक की कदर करते हैं। उसी तरह दूसरों को भी हमारे शौक की कदर करनी चाहिए। एक सी दुनिया देखने में कभी भी अच्छी नहीं लगेगी। सतरंगी दुनिया ही देखने में अच्छी लगती है। खुदा ने जब हमें इतनी नियामतों से नवाज़ा है तो हमें अपनी पसन्द चुनने का भी अधिकार होना चाहिए। मैं यही बात तुम्हारे बाबा को समझाने की कोशिश कर रही हूँ।”

Description

अनुक्रम

निवेदन
1. बदलता समय
2. क्रिकेट
3. चीनू
4. वो ढाई घण्टे
5. एक नयी सुबह
6. बकुए
7. चौधरी जी की कार
8. हम पाँच और वो
9. मिड नाइट फीस्ट

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