







Bhakti Kavya aur Hindi Aalochana – Ek Punravlokan / भक्ति काव्य और हिन्दी आलोचना — एक पुनरवलोकन
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पुस्तक का अंश
पितृसत्तात्मक समाज-व्यवस्था में एक तरफ स्त्री को शारीरिक रूप से कमजोर बताया जाता है और दूसरी तरफ घर के बाहर और भीतर तक सबसे कठिन काम वही करती है, जैसे की पानी और लकड़ी को ढोना, चक्की में अनाज पीसना, खेतों में काम करना, ईंट-गारे ढोना आदि।
लिंग के आधार पर श्रम-विभाजन प्रकृति के बहाने कर दिया जाता है। घर के अन्दर के सभी काम ‘औरतों का काम’ होता है, यह अलग बात है कि पुरुष भी उन कामों को उतने ही दक्षता से कर सकते हैं, अत: उसका लिंग से कोई लेना-देना नहीं है। औरत जो भी काम करती है उसके लिए उसे पुरुषों की तुलना में काफी कम वेतन मिलता है और उस काम की अहमियत भी कम मानी जाती है। स्त्रियों को शारीरिक रूप से बार-बार कमजोर बताकर पुरुष उसका फायदा उठाते हैं। जब औरतों द्वारा किये जाने वाले सारे मुश्किल कामों का मशीनीकरण हो जाता है तो वो सारे काम पुरुषों को दे दिया जाता है और स्त्री को कमजोर बताकर हाशिये पर धकेल दिया जाता है। ‘लिंग के आधार पर श्रम-विभाजन के पीछे कोई जैविक असमानताएँ नहीं हैं बल्कि इसकी जड़ में कुछ विचारधारात्मक मान्यताएँ हैं।’ पितृसत्तात्मक समाज में लिंग के आधार पर अलग-अलग तरीकों से उन्हें अपनी-अपनी भूमिकाओं के लिए तैयार किया जाता है। जैसे-एक ही परिवार में लड़कियों को शर्माने, संवेदनशील होने, कम बोलने, पर्दे में रहने, सन्तोष करने, हाँ में हाँ मिलाने आदि सिखाया जाता है। वहीं उसी परिवार में एक लड़के को बहादुर, आत्मविश्वासी, हक के लिए जागरूक रहना, दबकर न रहना आदि सिखाया जाता है। यदि कोई पुरुष रोकर अपना दु:ख बता रहा है तो उसे ताने दिये जाते हैं–‘औरतों की तरह रो रहे हो!’ क्योंकि रुलाने का काम पुरुष का है रोने का काम तो केवल स्त्री का!
अगर कोई पुरुष गुलाबी, पीला, लाल आदि रंग के कपड़े पहन ले तो उसे ताने दिये जाते हैं–कि ‘क्या लड़कियों वाले रंग पहने हो!’ ऐसे रंग के कपड़े पहनने से पुरुष कतराते हैं। स्त्रियों के मासिक धर्म को अपवित्रता से जोड़ दिया जाता है, स्त्री से अपेक्षा की जाती है, कि वह मासिक धर्म के समय वे सारे काम न करे जो पवित्रता के श्रेणी में आते हैं। जबकि अगर पुरुष के साथ ऐसा होता तो उसे वीरता के साथ जोड़कर देखा जाता। पुरुष गर्व से बताता कि चार दिन तक उसने खून बहाये हैं, जबकि स्त्री के साथ लाज से जोड़ दिया जाता है और अपेक्षा की जाती है, कि वह मासिक धर्म को छुपाये। यानी कुल मिलाकर बहादुरी के गुण पुरुषों की विशेषता मानी जाती है, जबकि स्त्री कितनी ही वीरता और शौर्य दिखाये उसके ऐसे गुण को नारीवाले गुण नहीं माना जाता–उसका काम है शर्माना, लजाना! फिर चाहे कितनी ही औरतें कितनी भी बहादुरी का प्रदर्शन करती रहें और कितने ही पुरुष पीठ दिखाकर भाग खड़े होते रहें।
‘दो लिंगों के बीच में मौजूदा सामाजिक सम्बन्धों को तय करने का सिद्धान्त जिसमें एक लिंग दूसरे लिंग से श्रेष्ठतर है, एक सिरे से गलत है और वह समाज की उन्नति में एक अवरोध बना हुआ है।’ कोई भी जीव जिस माहौल में रहता है उसे उसकी आदत हो जाती है, उसी प्रकार स्त्री को तरह-तरह के प्रलोभनों में फँसाकर घर के चहारदीवारियों में बन्द कर दिया गया। स्त्री की स्थिति उस वृक्ष जैसी है जिसकी आधी शाखाओं को भाप-स्नान दिया जाता है जबकि बाकी आधी बर्फ में ढँकी है। लिंग के आधार पर स्त्री दोहरे शोषण को झेलती है। पुरुषों ने बहुत चालाकी के साथ स्त्रियों के हर पक्ष पर अधिकार कर लिया। ‘पितृसत्ता, जिसके जरिये अब संस्थाओं के एक खास समूह को पहचाना जाता है, को सामाजिक संरचना और क्रियाओं की एक ऐसी व्यवस्था के रूप में पारिभाषित किया जाता है जिसमें पुरुषों का स्त्रियों पर वर्चस्व रहता है, और वे उनका शोषण और उत्पीडऩ करते हैं।’
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डॉ. अंजु बाला
1 दिसंबर 1978 को हरियाणा के मिर्चपुर (हिसार) के एक शिक्षित किसान परिवार में जन्म। आरंभिक शिक्षा गांव में। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र से बी.ए., एम.ए., बी.एड. और पीएच.डी.। जर्मन भाषा और साहित्य का तीन वर्षीय पाठ्यक्रम तथा पत्रकारिता एवं जनसंचार में डिप्लोमा भी। दर्जनों शोध आलेख राष्ट्रीय – अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित। तीस से अधिक राष्ट्रीय – अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में शोध पत्रों की प्रस्तुति। अंतरानुशासिक पूर्व समीक्षित शोध पत्रिका ‘बोहल शोध मंजूषा’ के दो अंकों का संपादन। दिल्ली विश्वविद्यालय के श्री गुरु नानक देव खालसा कॉलेज में 2011 से अध्यापन। प्रकाशित कृतियाँ : ‘नारीवाद की हिंदी कथा’, ‘हिंदी साहित्य विमर्श के नये आयाम’, ‘साहित्य, मीडिया और आजीविका’, ‘नामवर सिंह का संसार’, ‘हिंदी साहित्य में दलित विमर्श’, ‘साहित्य के नये परिप्रेक्ष्य’ और ‘हिंदी साहित्य और दिव्यांग विमर्श’। संप्रति : असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, श्री गुरु नानक देव खालसा कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) देव नगर, करोलबाग, नई दिल्ली-110005
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