







Ek Gadhe ka Dharm-Parivartn (Prose Satire) / एक गधे का धर्म-परिवर्तन
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पुस्तक के बारे में
ओबामा जी,
‘जय बजरंग बली’।
आपको पत्र तो लिख रहे हैं पर यह नहीं समझ पा रहे हैं कि आपको क्या संबोधन करें क्योंकि उम्र में आप हमारे बेटे से बड़े नहीं हैं, यदि किसी भारतीय स्कूल में पढ़े होते तो आप हमारे शिष्य हुए होते। पद में आप मनमोहन जी से बड़े हैं और ताकत में भीम के भी बाप। हाइट में देखें तो हम से एक हाथ ऊँचे। खैर, जब आप चुनाव के लिए खड़े हुए थे तो भारतीय लोगों ने आपके हाथ के ब्रेसलेट में बन्दर की आकृति जैसी कोई चीज देखकर उसे हनुमान मान लिया था और आपको हनुमान जी का भक्त मान कर यहाँ के एक सज्जन ने आपको हनुमान जी की एक मूर्ति भेजने का समाचार भी छपवा दिया था। हम तो वास्तव में हनुमान जी के भक्त हैं सो आपको ‘जय बजरंग बली’ का संबोधन कर रहे हैं।
मई में आपके भारत आने का समाचार पढ़ा था जिसमें यह भी था कि आप भारत आकर चपाती खाना पसंद करेंगे। हम तो राजस्थान के रहने वाले हैं सो हमेशा से रोटी ही खाते चले आ रहे हैं। बाजरा, जौ, मक्का, गेहूँ, जौ-चने, गेहूँ-चने आदि की रोटियाँ। हमारे यहाँ चपाती नहीं बना करती थी। चपाती तो नफीस लोगों के यहाँ बना करती थीं। जितने आटे की हमारे यहाँ एक रोटी बनती थी उतने आटे में चपाती बनाने वाले पाँच चपातियाँ बना लेते थे।
पहले तो जब हम अपने गाँव से बाहर नहीं निकले थे तब यही सोचा करते थे कि चपाती कोई रोटी जैसी चीज नहीं बल्कि कोई अन्य ही व्यंजन होता होगा। इसी तरह तंदूर की रोटी को भी किसी विशेष अनाज की रोटी समझा करते थे। हमारी पत्नी की जनरल नोलेज भी हमारे जैसी ही थी। हमारे उत्तर प्रदेश के बहुत से साथी अध्यापक खाने की चर्चा चलने पर बार-बार चपाती शब्द का प्रयोग किया करते थे। यह तो बहुत बाद में उनसे पूछने पर पता चला कि तंदूर एक विशेष प्रकार का चूल्हा होता है और चपाती गेहूँ के आटे को ही चपत मार-मार कर पतली बना दी गई रोटी को कहते हैं।
सो एक दिन हमने अपनी पत्नी से बड़ी अदा से कहा कि अब तक हम पिछड़े ही रहे। थोड़ा सा भी जीवन स्तर ऊँचा नहीं उठाया। अब तो बच्चे बड़े हो गए हैं। नौकरी करने लग गए हैं। अब से भारत को प्रधानमंत्री देते रहने वाले, सभी प्रश्नों की जड़, देश के सबसे बड़े प्रान्त उत्तर प्रदेश के लोगों की तरह हम भी दोनों टाइम चपाती खाया करेंगे। आज से रोटी बंद।
पत्नी ने कहा– ठीक है, बच्चे बड़े हो गए हैं, घर की आर्थिक स्थिति ठीक-ठाक हो गई है पर इसका मतलब यह तो नहीं कि बुढ़ापे में मन को चंचल करो। अरे, अब तो भगवान का नाम लेने की उम्र है। तुम भी उन्हीं लोगों की तरह कर रहे हो जिन्हें मरते समय बच्चे पूछते हैं– बाबा, क्या इच्छा है? तो गीता सुनने की बजाय कहेंगे, दही बड़े खाऊँगा। सैंकड़ों पीढ़ियाँ बीत गईं रोटी खाते-खाते। अब तुम्हें चपाती खाने का शौक चर्रा रहा है। पता नहीं बुढ़ापे में यह चपाती पचेगी भी या नहीं।
हमने पत्नी के अज्ञान का मज़ाक सा उड़ाते हुए कहा– अरे, तुम्हें पता नहीं, चपाती भी गेहूँ की रोटी ही होती है। बस, ज़रा पीट-पीट कर पतला बना दिया जाता है। थोड़ा सा समय ही तो अधिक लगेगा। क्या फ़र्क पड़ता है। बना दिया करो। और फिर सोचो, कितना रोब पड़ेगा जब हम चबूतरे पर बैठ कर आवाज लगाया करेंगे कि चिक्की की दादी, ज़रा एक चपाती तो और लाना।
पत्नी चिढ़ गई। कहने लगी- ये फालतू के नखरे और चोचले छोड़ो। पानी को जल कहने से कोई विद्वान नहीं हो जाता। मेहतर को सफाई कर्मचारी या हरिजन कहने से या किसी जिले का नाम किसी दलित नेता के नाम पर रख देने से उसका कोई उद्धार नहीं होने वाला। उद्धार तो तब होगा जब उसे खाने को रोटी और शिक्षा मिलेगी; समाज में प्रेम और सद्भावना बढ़ेगी; जब समृद्ध हो चुकी आरक्षित जाति के लोग आरक्षण के नाम पर बार-बार लाभ लेते रहने का लालच छोड़ेंगे। है तो वही गेहूँ का आटा। उसके चार पतले छिलके बनाकर खालो या एक ही ठीक-ठाक सी रोटी बना कर खालो। मतलब तो पेट भरने से ही है ना।
अब उसे कौन समझाए कि नफासत भी कोई चीज़ होती है। सो ओबामा जी, हमारा तो चपाती-चिंतन यही है। वैसे हम जानते हैं कि असली चीज है भूख और उसकी शांति। हमारे देश के साथ तो हमेशा से यही हुआ है कि हमारे यहाँ कुछ तो पानी की सुविधा थी और कुछ जलवायु अनुकूल थी सो अन्न की कमी नहीं थी और लोग भी संतोषी थे। सो हम कभी भूख से परेशान होकर या ज्यादा के लालच में हथियार लेकर दूसरों की ज़मीनों पर कब्ज़ा करने के लिए नहीं गए। लोग ही अढ़ाई हजार बरसों से भारत की रोटी की तरफ ललचाकर हथियार लेकर आते रहे–क्या हूण, क्या शक, क्या तुर्क, क्या मंगोल, क्या मुग़ल, क्या ब्रिटिश, क्या पुर्तगाली, क्या फ्रांसीसी। अब भी बंगलादेश और पाकिस्तान से लोग चपाती खाने के लिए घुस ही आते हैं।
अब आप कह रहे हैं कि आप भी भारत आकर चपाती खाना चाहते हैं। हम जानते हैं कि आपके यहाँ अनाज की कोई कमी नहीं है। आप तो जब अनाज सड़ जाता है तो उस अनाज को परोपकार के लिए पिछड़े देशों को बेच देते हैं। धर्म का धर्म और धंधे का धंधा। आपको खाने-पीने की क्या कमी। आप तो हमारा दिल रखने के लिए कह रहे हैं। जैसे भगवान ने विदुर की पत्नी के हाथ से केले के छिलके खा लिए, शबरी के बेर खाए, करमा बाई का खीचड़ा खा लिया, सुदामा के चावल खाए या जैसे आजकल कई नेता दलितों के घर जाकर खाना खाते हैं। इस अदा से आप हमारे दिलों के और नज़दीक आ गए हैं। यही तो है गरीब का दिल जीतने का स्टाइल। गरीब का दिल जीत लो फिर चाहे उसकी जेब ही काट लो। पर हमें आपके इरादे पर कोई शक नहीं है क्योंकि आप भी शुद्ध गोरे नहीं हैं और हम भी ब्रिटिश राज के ज़मीन पर हगनेवाले काले आदमी हैं।
अब आप कहें तो चपाती-निर्माण-कला के बारे में कुछ बात हो जाए। वैसे आपको बता दें कि हमारे यहाँ आजकल तथाकथित बड़े और आधुनिक लोग चपाती, रोटी, दलिया, सत्तू, दाल, भात, छाछ, शिकंजी, राबड़ी आदि को तुच्छ, यहाँ तक कि हेय समझने लगे हैं। वे तो पिज्जा, बर्गर, ब्रेड, कोकाकोला, पास्ता, बीयर आदि की तरफ भागने लगे हैं। पर आप हैं कि चपाती खाने की इच्छा ज़ाहिर करते हैं सो हमारे धन्य भाग और चपाती के भी। हो सकता है कि आपके कारण ही चपाती के दिन फिर जाएँ।
तो चपाती-निर्माण की बात। चपाती बनाना कोई आसान काम नहीं है। यह कोई ब्रेड तो है नहीं कि लोथड़ा बनाया और मशीन में डाल दिया और पक कर बाहर। इसमें तो पहले बारीक आटे को गूँधो फिर कई देर तक भिगोओ। फिर तेल या घी लगाकर म्हलाव देकर मुलायम बनाओ। उसके बाद चपत लगाते-लगाते उछाल-उछाल कर पतली बनाते जाओ। यदि उछालने में नीचे गिर जाए तो फिर वही परेशानी। लेकिन यह चपाती बारीक आटे की बनती है इसलिए बड़ी ज़ल्दी सख्त हो जाती है और पचती भी ज़ल्दी नहीं और कहते हैं पतले आटे की चपाती कब्ज़ भी करती है। पर मोटे आटे की चपाती बनती भी तो नहीं। मोटे आटे की तो रोटी ही बनती है। पर उसे बहुत देर तक धीमी आँच पर सेकना पड़ता है। तब कहीं जाकर खस्ता और करारी बनती है। असली मज़ा तो रोटी खाने में ही है पर क्या करें आपने चपाती खाने की इच्छा ज़ाहिर की है सो ठीक है।
वैसे आपके यहाँ से 1950 के आसपास भारत में आये लाल गेहूँ की चपाती भी बड़ी सख्त बनती थी पर भारत के भूखे लोग किसी तरह उसे भी खा ही गए। इसके बाद हमने अपने आप को अनाज के मामले में आत्मनिर्भर बना लिया। पर जब से वैश्वीकरण की हवा आई है, हमने अनाज से ज्यादा मोबाइल, कम्प्यूटर और क्रिकेट को ज़रूरी मान लिया। पवार साहब खेती से ज्यादा क्रिकेट पर ध्यान देने लगे। देश फसलों के सौंदर्य से ज्यादा चीयरलीडर्स का दीवाना हो गया। रही सही कसर बुश साहब पूरी कर गए। जब वे यहाँ आए तो भैंसों को दुलराते हुए और कंधे पर हल रखकर फ़ोटो खिंचवाया तब से भैसों ने दूध देना कम कर दिया। और हल भी हमें लगता है कि अपने साथ ले गए सो अनाज की भी कमी हो गयी। इसीलिए दोनों चीजों के ही भाव बढ़ गए और आम आदमी का जीना मुश्किल हो गया। पर क्या करें आपने मनमोहन सिंह जी को उनकी पसंद का बैंगन का भुरता खिलाया तो हम भी आपको चपाती खिलाने का इंतज़ाम करेंगे ही।
पर क्या बताएँ जब से बाज़ार मुक्त हुआ है तब से उस पर सरकार का कोई नियंत्रण ही नहीं रहा। जो भी, जैसे चाहे मिलावट करता है। सरकार लाख ‘शुद्ध के लिए युद्ध’ अभियान चलाती है मगर किसी पर कोई असर ही नहीं होता। लोग भगवान का प्रसाद समझ कर मिठाई खाते हैं मगर मिलावट होने के कारण अस्पताल पहुँच जाते हैं। पर आपसे यह सब क्या रोना रोएँ, यह तो हमारे घर की अपनी समस्या है। वैसे अभी हमारे मनमोहन सिंह जी कानपुर आई.आई.टी. में दीक्षांत भाषण देने गए थे। पता चला कि उनके खाने के लिए खरबूजे के जो बीज लाए गए थे वे फंगस लगे हुए थे। अब आप अंदाज लगा लो कि साधारण लोगों का क्या होता होगा। खैर, हम आपके लिए विशेष सावधानी से गेहूँ चुनेंगे। बिना ज्यादा कीटनाशक वाला कोकाकोला तैयार करवाएँगे भले ही हमारे यहाँ कोकाकोला कम्पनी वाले अमरीका से दो सौ गुना कीटनाशक मिला कर पिलाते हों।
अब आप तो दशमूलारिष्ट और हाजमोला जैसे पाचक पदार्थ लेकर चपाती खाने के लिए आने की तैयारी करें।
वैसे हमें पता है कि जब आपकी दावत होगी तो मनमोहन जी हमें नहीं बुलाने वाले। वैसे उन्हें अर्थव्यवस्था संभालने से और पवार जी को क्रिकेट का उद्धार करने से ही फुर्सत नहीं। सो यदि यहाँ आने के बाद आपको चपाती के बारे में और कुछ जानकारी चाहिए तो हमें याद कर लीजिएगा।
धन्यवाद।
13-07-2010
…इसी पुस्तक से…
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रमेश जोशी
18 अगस्त 1942 को शेखावाटी के शिक्षा और संस्कृति की दृष्टि से समृद्ध कस्बे चिड़ावा (झुंझुनू-राजस्थान) में जन्म।
राजस्थान विश्वविद्यालय से एम. ए. हिंदी और रीजनल कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन, भोपाल से बी.एड.।
40 वर्षों तक प्राथमिक विद्यालयों से महाविद्यालय तक भाषा-शिक्षण के बाद 2002 में केंद्रीय विद्यालय संगठन से सेवा-निवृत्त।
शिक्षण के दौरान पोरबंदर से पोर्टब्लेयर तक देश के विभिन्न भागों की संस्कृति और जीवन से जीवंत परिचय ने सोच को विस्तार और उदारता प्रदान की।
1958 में साप्ताहिक हिंदुस्तान में प्रकाशन से छपने का सिलसिला शुरू हुआ जो कमोबेश नियमित-अनियमित रूप से 1990 तक चलता रहा। इसके बाद नियमित लेखन।
अपने समय की लगभग सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित, अब भी कई समाचार पत्रों में कॉलम लेखन।
अब तक व्यंग्य विधा में गद्य-पद्य की दर्जनों पुस्तकें प्रकाशित।
अनेक सम्मानों और पुरस्कारों से अलंकृत।
दो शोधार्थी व्यंग्य साहित्य पर शोधरत।
पिछले 22 वर्षों से अमरीका में आवास-प्रवास।
2012 से अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति अमरीका की त्रैमासिक पत्रिका ‘विश्वा’ का संपादन।
ब्लॉग : jhoothasach.blogspot.com
संपर्क : भारत : दुर्गादास कॉलोनी, कृषि उपज मंडी के पास, सीकर-332-001 (राजस्थान) # 094601-55700
अमरीका : 10046, PARKLAND DRIVE, TWINSBURG, O.H., U.S.A. 44087 # 330-989-8115
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