







Peeth ka Foda (Stories) / पीठ का फोड़ा (कहानी संग्रह)
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पुस्तक के बारे में
यह संसार असंख्य कहानियों का एक अजायबघर है। हर व्यक्ति के साथ अनेक कहानियाँ जुड़ी होती हैं। उनमें से कुछ उसकी नितान्त वैयक्तिक होती हैं, तो कुछ के सूत्र इस गतिशील संसार से जुड़े होते हैं। संसार से जुड़े यही सूत्र जब कथा में स्थान पाते हैं, तब पाठक को अपने से लगने लगते हैं और उन कथा सूत्रों से उसका तादात्म्य स्थापित हो जाता है।
कहानियाँ और उपन्यास पढ़ने का शौक़ युवावस्था से रहा। कालान्तर में हिन्दी साहित्य का विद्यार्थी होने पर साहित्यिक कहानियों और उपन्यासों की ओर रुझान बढ़ता गया। अपने इर्द-गिर्द बिखरी अनेक घटनाओं, गतिविधियों ने उद्वेलित करना शुरू किया। पहले तो इन्हें कविता के विविध रूपों में बाँधने की कोशिश करता रहा, लेकिन अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का यह माध्यम अपर्याप्त लगा। तब लघुकथाओं और कहानियों में अपनी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का मार्ग खोजना शुरू किया। इन्हीं कोशिशों का परिणाम है, यह कहानी संग्रह ‘पीठ का फोड़ा’।
मेरा यह विश्वास रहा है और है, कि कथावस्तु की खोज के लिए हमें कहीं अलग से भटकने की ज़रूरत नहीं होती है। हमारे इर्द-गिर्द प्रतिपल घटित हो रहे क्रियाकलापों के बीच ही अनेक कहानियों के सूत्र विद्यमान हैं। कहानी के अनेक पात्र हमसे रोज़ टकराते हैं। तकनीकी विकास और भौतिकतावाद के इस युग में कहानी के लिए आवश्यक अन्तर्द्वन्द्वों से हमें रोज़ ही दो-चार होना होता है। आवश्यकता होती है, तो ठहर कर उनसे वार्तालाप करने की, उनका सामना करने की। इस संग्रह की कहानियों में अन्तर्निहित कथावस्तुओं के स्रोत भी हमारे चतुर्दिक व्याप्त वातावरण से ही ग्रहण किये गये हैं।
मैं कभी कहानी लिखने के लिए पूर्व निर्धारित योजना के तहत नहीं बैठ पाया, लेकिन जब किसी कथासूत्र ने व्यग्र किया और उसी समय मैं लिखने बैठा, तो कहानी पूरी होने के बाद ही विराम लिया। किसी भी कहानी को मैं तभी लिख पाया हूँ, जब उसकी कथा मेरे चिन्तन पटल पर चलचित्र की भाँति चलती रही है। यही कारण है, कि संग्रह की कहानियों में प्रत्यक्ष और अनुभूत यथार्थ किंचित कल्पना का साथ पाकर अपने समय के दस्तावेज़ के रूप में अंकित हुआ है।
मैं कहानी लिखते समय कभी पृष्ठ संख्या का भी ध्यान नहीं रख पाया। इसीलिए कुछ कहानियों ने अधिक पृष्ठ ले लिये, तो कुछ ने कम। यदि ‘इक़बालिया बयान’ कहानी अपना बयान और हक़ीक़त बयान करती है, तो संग्रह की अन्य कहानियाँ भी उसी ईमानदारी से वर्तमान समय और समाज के इक़बालिया बयान हैं।
जितना सच यह है, कि आधुनिक विकास यात्रा में हमने बहुत तऱक्क़ी की है और करते भी जा रहे हैं, उतना ही सच यह भी है, कि इस विकास यात्रा में हम बहुत कुछ मूल्यवान सा बहुत पीछे छोड़ आये हैं। सबसे अधिक क्षरण हमारी मानवीय संवेदनाओं का हुआ है। यह वही संवदनाएँ हैं, जो मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी बनाती हैं, जो परिवार और समाज को जोड़े रखने के लिए उत्तरदायी होती हैं। हमने इस मशीनी युग में उन संवेदनाओं को ही तिलांजलि दे दी है। प्रदर्शन के इस युग में सबकी पीठ पर कोई न कोई फोड़ा जगह बना चुका है। इससे बच निकलने का कोई रास्ता नहीं है। हर कोई पीठ के इस फोड़े को ढोने के लिए अभिशप्त है।
मेरा मानना है कि मनुष्य, पहले मनुष्य होता है। किसी वाद या मार्ग से वह बाद में जुड़ता है। इस संग्रह की कहानियों में किसी वाद या मार्ग से मुक्त, मनुष्य और मनुष्यता के बीच पनप रहे अन्तर्द्वन्द्वों को खँगालने और उन्हें ही कहानियों में पिरोने का प्रयास किया गया है। हमारी दृष्टि जहाँ तक जाती है, वहाँ तक जीवन की जटिलता ही नज़र आती है। इन्हीं जटिलताओं और संघर्षों के बीच से किसी सुगम मार्ग की खोज का प्रयास भी इन कहानियों में दिख सकता है।
यदि हम पल भर को ठहर कर देखने का समय निकाल सकें, तो मानवीय और सामाजिक मूल्यों के नित प्रति गिरते सूचकांक हमें चिन्ताजनक लगेंगे। एक लोटा पानी, पापा जी की वापसी, ढलता हुआ सूरज, कौन सी माँ, पीठ का फोड़ा आदि कहानियाँ उसी चिन्ता और छटपटाहट की उपज हैं। डॉ. चन्द्रिका प्रसाद ‘चन्द्र’ के निबन्ध ‘दुख ही जीवन की कथा रही’ में चित्रित एक यथार्थ ने बहुत विचलित किया। वह उद्वेलन ‘अन्तिम संस्कार’ शीर्षक कहानी के रूप में इस संग्रह में मिलेगा।
— डॉ. राम गरीब पाण्डेय ‘विकल’
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