







Mailo Neer Bharo (Novel) / मैलो नीर भरो (उपन्यास)
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पुस्तक के बारे में
सूरदास की एक बहुश्रुत भक्ति-रचना, जिसमें उनकी यथार्थबोधक दृष्टि से जीव और जगत का समय और स्थितिजन्य परिणाम और नियति निरुपित है, की एक पंक्ति है, “एक नदिया एक नाल कहावत मैलो नीर भरो।” यही इस उपन्यास का शीर्ष है। स्पष्ट है कि इस रचना के केन्द्र में लेखक का जो विजन है, उसकी जो तलाश है और जिन स्थितियों और चरित्रों का वह संज्ञान लेता है वह मानुष नहीं, ‘साबरि ऊपर मानुस सत्य’ है। सत्य यानी यथार्थ। यथार्थ जो मनुष्य (और उसके सह-अस्तित्व में पल रहे अन्य जीवों) के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और सभ्यताधर्मी पहलु का चाक्षुष और आत्मिक अनुभव है।
रेणु की तरह शालिग्राम भी न तो प्रेमचंद के आदर्शवादी यथार्थ के साथ खड़े हैं और नहीं ही अज्ञेय अथवा जैनेन्द्र की तरह अतियथार्थवादी दिखते हैं। वे तो बस अपने परिवेश में जीते-जागते, जो जैसा है, का अनुभव करते हुए उतना ही पैबन्द चिपकाते हैं, जितना से कि उनकी रचना साहित्य की कसौटी पर खरी उतरे। इसमें भी हम एक ऐसे लोक में उतर आते हैं जहाँ यथार्थ और आदर्श, पुराचीन और नवीन, ऐन्द्रिक और अतिन्द्रिक वासना, प्रेम, घृणा, सभी बिना अतिश्योक्ति के अनुभवगम्य हैं।
उपन्यास अत्यंत रोचक है। कथांचल, रेणु की तरह ही यहाँ भी, सीमित है। सीमित ही नहीं, संकुचित भी। एक पूरा गाँव भी नहीं, गाँव को छूत न लग जाने भर की दूरी लिए एक ‘डोमासी’ मात्र! डोम-मुसहरों का बास। पतरी चाटते जीभ, सूअरों का सहचर जीवन, घोंघा-केंकुड़ा-मछली-मूस पर पलते पेट, गाँजा-सुलफा-ठर्रा-ताड़ी से तृप्त होती आत्मा! ‘जयराम-पेशा’ खानदानी पेशा। चोरी-डकैती लठैती अपहरण ही हैसियत। लेकिन यही ‘नाल’ अब ‘नदिया’ बन रही है। गाँव की विकसित अगड़ी जातियों के तेवर को साध लेने की उत्कंठा जग गयी है। धनार्जन के लिए घृणित धंधा अब उनका पेशा नहीं, शहर की ओर उन्मुख हो रहें हैं सब, कारिगरी करने, ठेकेदारी करके अडीतुरंग बनने। शहर का प्रतिगामी सोच डोमासी पर भी उतर रहा है। ग्रामीण भदेसपन और शहरी मध्यमवर्गीय मानसिकता का एक रोचक सामंजस्य! भाषा और शिल्प तिल-तिल सुघड़, साफ़ और सरल!
– धनेशदत्त पाण्डेय, सुपरिचित कथाकार एवं आलोचक (देहरादून)
…
सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव समय की मांग भी है और सामूहिक विकास की जरूरत भी। उससे भी अधिक मानसिक बदलाव अपेक्षित, जो सभी प्रकार के परिवर्तनों के धरातल पर उतरने का आधार बिन्दु है। छोटे स्तर से लेकर बड़े सुधारकों ने इस दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास किए हैं। उसका असर भी दिखाई देता है। पहले की तुलना में ऊंच-नीच की दीवारें टूटी हैं, परस्पर आवाजाही बढ़ी है। आर्थिक मोर्चे खुले हैं, सांस्कृतिक चेतना कहीं अधिक स्पष्ट हुई है। ‘तथाकथित सवर्णों की देह से अभी तक दोआबी मैल छूट नहीं पाया है। किन्तु समय का बदलाव धीरे धीरे इस कथित दोआब को ध्वस्त करता जा रहा है और मैल की पर्तें साफ़ होती जा रही हैं।’ फिर भी, कई गांठें खुलनी शेष हैं जो मन के भीतर धंसी पड़ी हैं। वे गांठें ही समरस समाज के स्वरूप ग्रहण करने में बड़ी बाधा हैं।
शालिग्राम का उपन्यास ‘मैलो नीर भरो’ मन में धंसी इन्हीं गांठों को खोलने की आकांक्षा का प्रतिबिम्ब है। दलित बस्तियों के जीवन और व्यवहार पर केंद्रित कथा अपने दृश्यांकन में परिवर्तन की अपेक्षित पुकार से शुरू होती है। इस पुकार को सुनते हैं गगनदेव साही, जो परिवर्तन के विरुद्ध खड़ी शक्तियों के शिकार हो जाते हैं। इस रथ पर सवार होते हैं सन्नू सिंह सूर्यपुरी। उनकी सफलता और स्वीकार्यता सूर्यपुरी की मानसिक तैयारी के कारण सिद्ध होती है। शालिग्राम के औपन्यासिक आख्यान का मूल भाव यही है कि समाज के ऊपरी पायदान पर बैठे लोग जब तक दिल से नीचे की ओर हाथ नहीं बढ़ाएंगे, संपूर्ण बदलाव और न्यायोचित विकास संभव नहीं है। महादलित बस्तियों के यथार्थ स्वरूप को संवारने की कल्पनाशीलता से उपन्यास की कथाभूमि बेहतर स्वाद की फसल तैयार करती है। शालिग्राम लंबे समय तक गांव के मुखिया रहे हैं। उन्हें अहसास है कि समाज और राजनीति की अगुवाई करने वाले ईमानदार और आकांक्षी हों तो निश्चित ही संपूर्ण परिवर्तन यथार्थ के धरातल पर उतर सकता है। लेखक के व्यक्तिगत अनुभवों का ताप इस उपन्यास के पात्रों की जीवंतता का परिचायक है और उम्मीद की ऊर्जस्विता का भी।
— प्रो. राजेंद्र कुमार, वरिष्ठ कवि एवं आलोचक, इलाहाबाद
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