

Tatparya (Contemporary Literary Criticism) तात्पर्य (समकालीन आलोचना)
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Author(s) — Dr. LAXMI PANDEY
लेखक — डॉ. लक्ष्मी पाण्डेय
| ANUUGYA BOOKS | HINDI | 296 Pages | Hard BOUND | 2019 |
| 5.5 x 8.5 Inches | 450 grams | ISBN : 978-93-86835-84-0 |
पुस्तक के बारे में
हर खरे, सच्चे साहित्यकार के भीतर एक कबीर होता है। थोड़ा कम या अधिक, लेकिन होता अवश्य है जो दूसरों की ‘पीर’ यानी पीड़ा को समझता है। जो इस विज्ञान और तकनीकी के आपाधापी और रेलमपेल वाले तीव्र गतिशील समय में अपनी मनुष्यता को बचाए रखने के लिए तो प्रयासरत रहता ही है, समाज के नैतिक और मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए भी प्रयत्नशील रहता है। वह मनुष्यों के अन्तर्बाह्य पर, समाज के कोने-अंतरों पर भी सूक्ष्म और गहन दृष्टि डालता है। पीड़ित, अभिशप्त, हाशिए पर पड़े जीवनों की व्यथा-कथा तो कहता ही है, उनकी कथा भी कहता है जिन्हें समाज में हाशिए पर भी स्थान नहीं मिला। जो जन्म से मृत्यु तक की अस्तित्व और अस्मिता की लड़ाई लड़ते-लड़ते हार चुके होते हैं और अपने अभिशप्त जीवन के यथार्थ को स्वीकार कर जीवन से समझौता कर चुके होते हैं। जिनका प्रतिदिन तार-तार होता जीवन स्वयं एक प्रश्नचिह्न बन गया है। जिसका उत्तर खोजते हुए कबीर ने उस परमपिता जुलाहे से पूछा था–‘कौन तार से बीनी चदरिया?
…इसी पुस्तक से…
दरबारी होने के लिए अनिवार्य गुण और शर्त है ‘चापलूस होना’…। सत्ता की (दरबार की) हाँ में हाँ मिलाकर, उन्हें खुश कर अपना स्वार्थ साधना…। जाहिर है यह गुण कबीर, तुलसी, सूर में नहीं था… भक्तिकाल के कवियों में नहीं था…। वर्तमान में दरबार उस रूप में नहीं है लेकिन परिवर्तित रूप में है तथा दरबारी भी हैं जो सत्ता की हाँ में हाँ मिलाकर स्वार्थ साधते हैं। चापलूसी करते हैं, मुँहदेखी बात करते हैं और धन, यश, सम्मान-पुरस्कार पाते हैं। दरबारी भी सर्वकालिक होते हैं। यही प्रगतिशीलता की निशानी भी है। तुलसीदास ने स्वयं दरबारी होने के पद को अस्वीकार करते हुए लिखा–
हम चाकर रघुवीर के पटौ लिखौ दरबार।
तुलसी अब का होयेंगे नर कै मनसबदार।।
तुलसी अपने आराध्य राम के दरबार में चाकर थे और किसी मनुष्य के दरबार की चाकरी उन्हें नहीं भाती थी, चाहे दरबारी कवि कहें या मनसबदारी… उन्होंने ठुकराया…लेकिन किसी दरबारी कवि का अपमान या विरोध उन्होंने नहीं किया। अपने लिए चयन का हक सबको है…। तब उन्हें दरबार विरोधी कैसे कहा जा सकता है? ये संत कवि केवल अन्याय, अमानवीयता, अंधविश्वास, अज्ञानता के विरोधी थे…।
…इसी पुस्तक से…
…अनुक्रम…
- मेरी बात–
- ‘कफन’ क्षरित मनुष्यता की कहानी है (प्रेमचन्द – ‘कफन’)
- निर्मल आत्मकथा (निर्मला जैन – ‘जमाने में हम’)
- संस्मरणात्मक प्रेरक स्मृत्याख्यान (साने गुरूजी – श्यामची आई [श्याम की माँ] मराठी से अनुवादित–संध्या पेडणेकर)
- निकष पर तत्सम (राजी सेठ –‘तत्सम’)
- वर्तमान यथार्थ की सशक्त भावाभिव्यक्ति (राजी सेठ–‘निष्कवच’)
- निर्वासित जीवन और प्रेम का दस्तावेज (विजयबहादुर सिंह–‘भीम बैठका : खंड काव्य’)
- काव्यशास्त्र की जड़ों की तलाश (प्रभाकर श्रोत्रिय– ‘भारत में महाभारत’)
- मन और मनोविज्ञान की कहानियाँ (चित्रा मुद्गल – ‘पेंटिंग अकेली है’)
- अस्तित्व का प्रश्न/करुणा की जमीन पर आँसुओं की इबारत (चित्रा मुद्गल – ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा’)
- अतिरंजित ‘हरा आकाश’ (रमेश दवे–‘हरा आकाश’)
- शिक्षा व्यवस्था को आइना दिखाता उपन्यास (रमेश दवे – ‘मास्टर रामनाथ का शिक्षानामा’)
- साँस-साँस जिन्दगी (लीलाधर मंडलोई – ‘दिनन-दिनन के फेर’)
- बेहतरीन एवं मर्मस्पर्शी आत्मकथा (ज़ाबिर हुसैन – ‘चाक पर रेत’)
- सम्मोहित करने वाली कथा (ज़ाबिर हुसैन – ‘ये शहर लगे मोहे बन’)
- संवादहीनता से संवाद करते हुए (श्री शिवकुमार श्रीवास्तव–‘संवादहीनता के विरोध में रचना-धर्मिता’)
- अद्भुत जीवंत अभिव्यक्ति (विमल डे–‘महातीर्थ के अंतिम यात्री’ [यात्रा वृत्तांत] अनुवादक–दिलीप कुमार बनर्जी)
- स्मृतियों का जीवंत दस्तावेज (कान्तिकुमार जैन–‘महागुरु मुक्तिबोध जुम्मा टैंक की सीढ़ियों पर’)
- उत्कट जिजीविषा की कहानियाँ (रमेश पोखरियाल ‘निशंक’–‘विपदा जीवित है’)
- कबिरा आप ठगाइए (मैत्रेयी पुष्पा–‘वह सफर था कि मुकाम था’)
- इति ‘अथ’ कथा (राजीव रंजन गिरि–‘अथ’–साहित्य : पाठ और प्रसंग)
- स्मृतियों की प्रेरक तथा चिन्तनपरक अभिव्यक्ति (डॉ. मनोहर अगनानी–‘अंदर का स्कूल’)
- अद्भुत कथात्मकता (राजेन्द्र केडिया–‘मदन बावनिया’)
- यात्रा संस्मरणात्मक शैली में लिखा गया बेहतरीन उपन्यास (दयाराम वर्मा–‘सियांग के उस पार’)
- ‘कविताओं में कहानी है’ (अंजना वर्मा– तुम भी कभी किसी दिन)
- करुण रस प्रधान कहानियों का बेहतरीन संग्रह (अंजना वर्मा—‘कौन तार से बीनी चदरिया’)
- एक कलात्मक नाटक (राहुल सेठ ‘अंतर्ध्वनि’: अनुवाद- ‘रनिंग ऑन एम्पटी’)
- पश्चिमी संस्कृति के खतरों से आगाह करता उपन्यास (शरद सिंह–‘कस्बाई सिमोन’)
- गिरहें खोलतीं कहानियाँ (डॉ. मीरा चन्द्रा–‘कितनी गिरहें’)
- मर्मस्पर्शी काव्य-संग्रह (श्याम मनोहर सीरोठिया–‘रजनीगंधा अपनेपन की’)
- भावभीनी यथार्थवादी कहािनयाँ (निरंजना जैन—‘इकतीसा महीना’)
- सुचिन्तित तथ्यपूर्ण और प्रखर समीक्षाएँ (डॉ. श्याम बाबू शर्मा–‘नई शती और हिन्दी कविता’)
- प्रेम नित्य है (कुंती–‘पाँचवाँ मौसम’)
- यह कविता कवि के धैर्य की पराकाष्ठा है (मोहन शशि —‘बेटे से बेटी भली’)
प्रतिक्रियाएँ
- Description
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डॉ. लक्ष्मी पाण्डेय
डॉ. लक्ष्मी पाण्डेय, डी.लिट्., पूर्व सदस्य, हिन्दी सलाहकार समिति, अ.का.मं. भारत सरकार।
जन्म : 10 मार्च 1968, धारना कलॉ, सिवनी, (म.प्र.)
शैक्षणिक योग्यता : बी.एससी., एम.ए. हिन्दी, बी.एड., यू.जी.सी. स्लेट, पीएच.डी., डी.लिट्.।
सम्मान : 1. म.प्र. हि.सा. सम्मेलन सागर द्वारा – साहित्याचार्य डॉ. पन्नालाल जैन सम्मान 2010-11;
2. हिन्दी उर्दू मजलिस, सागर म.प्र. का परिधि 2014;
3. पं. शंकरदत्त चतुर्वेदी साहित्यकार सम्मान 2016।
प्रकाशित ग्रंथ : अपरिभाषित, उसकी अधूरी डायरी, इन दो उपन्यासों सहित कुल 28 पुस्तकें प्रकाशित। आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी; आचार्य भगीरथ मिश्र; रस विमर्श; साहित्य विमर्श; निराला का साहित्य; तथा आलोचना पर केन्द्रित ‘अर्थात’ पुस्तकें विशेष चर्चित। भाषा विज्ञान, भारतीय काव्यशास्त्र एवं आलोचना संबंधी लगभग दस पुस्तकें देश के अनेक विश्वविद्यालयों में एम.ए. के दूरस्थ शिक्षा पाठ्यक्रमों में सम्मिलित।
अनेक पत्रिकाओं का संपादन।
अनेक कहानियाँ विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित।
आकाशवाणी सागर से कहानियों का प्रसारण।
सम्प्रति : अध्यापन, हिन्दी विभाग, डॉ. हरीसिंह गौर, वि.वि., सागर, म.प्र.।
पता : श्रीसूर्यम्, कुलपति निवास के सामने कोर्ट रोड, 10-सिविल लाइन, सागर (म.प्र.)-470001,
मो. 9753207910, shreesuryam@gmail.com
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