







Sadak Par Mombattiyan (Tippaniyan Aalekh) / सड़क पर मोमबत्तियाँ (टिप्पणियाँ, आलेख)
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निस्सन्देह कम उम्र और नाबालिग अपराधियों को कठोर सजा से बचाया जाना चाहिए और उन्हें सुधरने की स्थिति उपलब्ध करायी जानी चाहिए। लेकिन यह एक बने-बनाये ढाँचे में रहने का तर्क नहीं हो सकता है। अधिनियम में यह प्रावधान हो कि न्यायालय समझे और विचार करे कि किस मामले में नाबालिग को कम सजा घोषित हो और किस मामले में सजा वयस्क अपराधियों को मिलने वाली सजा के समतुल्य या उसके आस-पास हो। यहाँ कुछ मुद्दे गहन विचार की अपेक्षा रखते हुए दिखाई पड़ रहे हैं। मसलन,
- छिनतई, पाकिटमारी, झगड़ा-मारपीट, चोरी जैसे छोटे-छोटे अपराध और हत्या, डकैती, बलात्कार जैसे जघन्य अपराध सजा के लिए एक जैसा माने जाने के लायक हैं या अलग-अलग माने जाने लायक हैं?
- आयु के पैमाने के लिए अभियुक्त की शारीरिक स्थिति को आधार बनाया जाना चाहिए या उसकी मानसिक स्थिति को, यानी नादानी, बालसुलभ भावावेश, अपरिपक्वता में हो गये अपराध और सोच-समझकर, लक्ष्य की समझ के साथ, परिणाम प्राप्त करने की हद तक जाकर किये गये अपराध–दोनों समान स्थितियाँ हैं या दोनों अलग-अलग स्थितियाँ हैं?
- एक या एक से अधिक नाबालिकों द्वारा किया गया कोई अपराध और वयस्कों के दल के सदस्य के रूप में सामूहिक रूप से नाबालिग द्वारा किया गया अपराध, दोनों एक जैसा माने जाने लायक हैं या अलग-अलग माने जाने लायक हैं?
हाल के कुछ वर्षों में देश के अपराध की जो घटनाएँ हुई हैं, उन पर नजर डाली जाये तो यह बात सामने आती है कि नाबालिगों द्वारा किये जा रहे अपराधों की संख्या में बेहिसाब वृद्धि हुई है। अखबार ऐसी घटनाओं की रिपोटों से भरे पड़े दिखते हैं। विचारणीय है कि यदि यह धारणा मजबूत हुई कि नाबालिग चाहे जितना भी जघन्य अपराध करें, वे मामूली सजा के साथ सुधार का अवसर पा लेंगे, तो मुमकिन है कि नाबालिगों द्वारा किये जा रहे अपराधों में और भी ज़्यादा इजाफा हो जाये और समाज एक नये संकट में घिर जाये। बहुत स्पष्ट है कि आवश्यक संशोधनों के साथ न्यायालय को बहुत कम सजा या वयस्क की सजा जितनी सजा में से विवेक के आधार पर चुनाव करने और निर्णय करने का अधिकार प्रदान किये जाने की ज़रूरत है।
* * *
सन् 1975-80 के आस पास हिन्दी प्रदेशों से वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ जो युवा लेखक उभरकर सामने आये थे, शंकर उनमें एक प्रमुख व्यक्तित्व हैं।
आरम्भिक वर्षों में ही उन्होंने साहित्यिक पत्रिका ‘अब’ का सम्पादन-दायित्व निभाया था। बाद में ‘परिकथा’ का संपादन। उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता उनकी कहानियों, टिप्पणियों और आलेखों में दिखाई पड़ती है। इसका उत्कर्ष ‘परिकथा’ के सम्पादन में भी द्रष्टव्य है।
‘सड़क पर मोमबत्तियाँ’ शंकर द्वारा समय-समय लिखे गये आलेखों, टिप्पणियों और सम्पादकीय टिप्पणियों का संग्रह है।
इन आलेख-टिप्पणियों में उनकी वैचारिकता, व्यापक समसामयिक सोच, वस्तुपरक दृष्टि और मौलिक चिन्तन-विश्लेषण द्रष्टव्य है।
ये आलेख-टिप्पणियाँ समाज, साहित्य, कला, सिनेमा, समसामयिक जीवन के प्रश्नों और उनके सामाजिक सरोकारों को एक बड़े परिदृश्य में रेखांकित करती हैं।
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शंकर
कथा-लेखन और साहित्यिक पत्रकारिता के सुप्रतिष्ठित व्यक्तित्व
बिहार के एक छोटे-से कस्बे में जन्म।
आरम्भिक वर्षों में साहित्यिक लघुपत्रिका ‘अब’ का समवेत संयोजन-सम्पादन।
प्रगतिशील लेखक संघ और लघुपत्रिका आन्दोलन की गतिविधियों में भागीदारी।
कृतियाँ–
- थोड़ी-सी स्याही (कविता-संग्रह)
- पहिये (कहानी-संग्रह)
- मरता हुआ पेड़ (कहानी-संग्रह)
- जगो देवता, जगो (कहानी-संग्रह)
- सड़क पर मोमबत्तियाँ (टिप्पणियाँ-आलेख)
- कहानी : परिदृश्य और प्रश्न (कथालोचना)
पिछले पन्द्रह सालों से साहित्यिक पत्रिका ‘परिकथा’ का सम्पादन।
सम्पर्क : 96 (फर्स्ट फ्लोर), ब्लॉक III, इरोज गार्डन, सूरजकुंड रोड, नयी दिल्ली-फरीदाबाद बार्डर-121009
मो.: 94 313 36275
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