-10%

Poorvottar kee Lok Sanskriti पूर्वोत्तर की लोक-संस्कृति

Original price was: ₹250.00.Current price is: ₹225.00.

FREE SHIPMENT FOR ORDER ABOVE Rs.149/- FREE BY REGD. BOOK POST

Language: Hindi
Book Dimension: 5.5″x8.5″

Amazon : Buy Link
Flipkart : Buy Link
Kindle : Buy Link
NotNul : Buy Link

पुस्तक के बारे में

पूर्वोत्तर भारत सही मायने में प्रकृत भारत है। यहाँ मनुष्य का स्वाभाविक व मौलिक रूप दिखलाई पड़ता है। रामायण, महाभारत, योगिनी तंत्र, कालिका पुराण तथा हरगौरी संवाद इत्यादि प्रख्यात ग्रन्थों में पूर्वोत्तर भारत प्रागज्योतिषपुर एवं कामरूप के रूप में वर्णित है। अश्वमेध यज्ञ तथा कुरुक्षेत्र प्रसंगों में भी यहाँ से जुड़े उल्लेख मिलते हैं। गुप्त साम्राज्य के शिलालेखों और चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा वर्णन में ही नहीं बाणभट्ट के हर्षचरित में भी कामरूप नरेश भास्कर वर्मा का ऐतिहासिक-सांंस्कृतिक दस्तावेजीकरण किया गया है। गिरिमालाओं से आच्छादित पूर्वोत्तर भारत ‘शैवालय’ के नाम से भी संज्ञापित है। मान्यता है कि कामदेव को शिव ने जब त्रिचक्षु से भस्म कर दिया और क्षमा याचनोपरांत पुनर्जीवन दिया तब से इसे कामरूप कहा गया। तेरहवीं शताब्दी में चाउलंग चुकाफा ने अहोम राज्य की नींव रखी। मुगलों के पश्चात इनका पराभव होने लगा। बर्मा के महाराजा और ईस्ट इण्डिया कंपनी के बीच यांदाब्रो संधि के पश्चात पूर्वोत्तर में ब्रिटिश हुकूमत का पदार्पण हुआ। वर्तमान में यह क्षेत्र भूटान, चीन, बर्मा, बंगलादेश, म्यांमार देशों से घिरा है।
पूर्वोत्तर भारत भौगोलिक-प्राकृतिक सम्पदाओं की दृष्टि से तो अनूठा है ही, सांस्कृतिक लिहाज से अपनी विलक्षणता को और पुख्ता करता है। जिनमें कुछ इस प्रकार की हैं जो देश की मुख्य धारा में शायद ही मिलें। चतुर्दिक सुरम्य पर्वतश्रेणियों से घिरे पूर्वोत्तर के बारे में बारह मास तेरह त्योहार की कहावत चरितार्थ है। असम का बिहू, मेघालय के नोङक्रेम-वंगाला, लुशाई जनों का छेरव, त्रिपुरा का खार्चि पर्व, अरुणाचल के सी दोन्यी-सोलुङ, नागाओं का तुलुनी लोकोत्सव; ये सब यहाँ की उत्सवधर्मिता से परिचय कराते हैं। बिहूगीत, कबिगान, जिकिर गीत, संकीर्तन, डोल जात्रा, लेप्चाओं के भजन-गीत, बर गीत, कृष्ण नृत्य, अंकिया नाट्य तथा गायन की नट शैलियाँ पूर्वोत्तर भारत की सांस्कृतिक अलौकिकता का दर्शन कराती हैं। यहाँ की लोक-कलाएँ अति समृद्ध हैं। डिमासा लोक-नृत्य, जयंतिया नृत्य, जेलियाँग नृत्य, वंगाला नृत्य, वेणु नृत्य और मणिपुरी नृत्य यहाँ की बहुरंगी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं। नृत्य-संगीत पूर्वोत्तर वासियों के जीवन जीने का सामान्य परन्तु रचनात्मक सोपान है। श्रम परिहार से जुड़े विविध उत्सव तो यहाँ हैं ही मृत्यु उत्सव और इससे जुड़े लोकगीतों की परम्परा इनके हर्ष-विषाद में समभाव का प्रकटीकरण करती है। लोक-जीवन के विविध पक्षों में जन जीवन की कल्पनाएँ, संस्कृति व आनंद जीवन्त रूप पाते हैं।
विभिन्न जनजातियों की विविध लोक परम्पराएँ, लोक देवी-देवता, विभिन्न अनुष्ठान अनेक पर्व-त्योहार यहाँ के साहित्य और लोक-संस्कृति का आधार हैं। जनजातीय समुदाय अँग्रेजी-हिन्दी का प्रयोग अवश्य करने लगे हैं तथापि अपनी बोलियों–भाषाओं से इन्हें बहुत लगाव है। किसी भी स्थान िवशेष की संस्कृित में वहाँ की भाषा और साहित्य का महत्त्वपूर्ण अवदान होता है। यहाँ की संस्कृति से ही स्थानीय साहित्य अपना वैभव पाता है जिसे राष्ट्रीय स्तर पर जोड़ने का विकल्प अनुवाद हो सकता है। नदी, झरने, पर्वत, वन, विविध वनस्पतियाँ फल-फूल यहाँ के जन मानस की आत्मा में वास करते हैं। सभी समुदायों के अपने-अपने पारम्परिक वस्त्र व आभूषण हैं। और ये भी इन्हीं पेड़ों, पर्वतों, नदियों और पशु-पक्षियों से प्राप्त हुए हैं। लकड़ी, बाँस और सींगों के वाद्य यंत्र इनके प्रकृति प्रेम की झाँकी प्रस्तुत करते हैं। बेटी जन्म पर हर्षोल्लास, महिलाओं का सम्मान यहाँ की थातियाँ हैं।

SKU: 9789386835123

Description

प्रकृति के साहचर्य में बसे पूर्वोत्तर भारत की अनूठी दुनिया है। ऐसे समय में जब आधुनिकता की चका- चौंध में हमारी लोक-संस्कृति, रीति-रिवाज, परंपरायेँ भी अछूती नहीं रह सकी हैं और लोक-संस्कृति के महत्व को अभिजात्यता द्वारा नकारा जा रहा हो तो बहुजातीय राष्ट्रीयता से संपन्न पूर्वोत्तर भारत के जनमानस की सभ्यता उनके विश्वास, मूल्य, लोक-कला, लोक-साहित्य और जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत लोक-जीवन के विविध क्रिया-कलापों का सूक्ष्म अवलोकन किया जाना निश्चित ही उल्लेखनीय हो जाता है। इस सत्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि लोक संस्कृति का किसी भी देश, जाति में अति महत्वपूर्ण स्थान होता है। घने जंगलों-वनों, पर्वतों-पहाड़ों, नदियों-झरनों, पशु-पक्षियों के साथ अपने लोक को थाती की तरह सँजोये हुए इस अंचल का अध्ययन लेखक ने बिना किसी पांडित्य प्रदर्शन के जिस सहज सरल और लोक के शब्दों के माध्यम से इस पुस्तक में प्रस्तुत किया है वह उनके लोक अन्वेषक होने का साक्ष्य है। इसके माध्यम से व्यापक समाज में पूर्वोत्तर की लोक-संस्कृति व प्राचीन भारतीय विरासत से तो संवाद स्थापित होगा ही सांस्कृतिक मूल से विस्थापित होते जीवन के लिए प्रेरणा भी प्राप्त होगी।

—डॉ कालीचरण यादव, संपादक मड़ई , बिलासपुर (छ.ग.)

Related Products