Author(s) — Walter Bhengra ‘Tarun’
लेखक – वाल्टर भेंगरा ‘तरुण’
| ANUUGYA BOOKS | HINDI | 144 Pages | PAPER BOUND | 2020 |
| 5.5 x 8.5 Inches | 300 grams | ISBN : 978-93-89341-36-2 |
पुस्तक के बारे में
मूलतः हिन्दी में लिखने वाले आदिवासी लेखकों के बीच वाल्टर भेंगरा ‘तरुण’ जाने-पहचाने हस्ताक्षर हैं। झारखण्ड के आदिवासी समाज के विभिन्न रूपों को लेखक ने अपनी कहानियों में दर्शाने का प्रयास किया है। ‘विकल्प’ में जहाँ महानगरों में रह रहे आदिवासी परिवार के संघर्ष का चित्रण है, तो उसके साथ गाँव के जीवन का दर्द भी दिखाई देता है। एक ओर ‘पत्थलगड़ी’ और ‘उग्रवाद’ की समस्याओं से जूझते आदिवासियों को ‘संशय’ और ‘सूखा डंटल’ में लेखक ने परिचय कराने का प्रयास किया है, तो ‘डायन’ में अंधविश्वास की बुराइयों की ओर इंगित करते हैं। झारखण्ड के छोटानागपुर से रोजी रोटी की तलाश में सुदूर अण्डमान निकोबार द्वीप समूह और असम के चाय बागानों में मजबूरी में जीवन काट रहे आदिवासियों के बारे में ‘कालापानी’ और ‘परिधि के घेरे में’ की कहानियों में लेखक ने प्रकाश डालने का प्रयास किया है। मानव तस्करी की चर्चा जहाँ ‘लसा’ में लेखक करते हैं, तो ‘गोल’ में आदिवासी युवतियों के खेल प्रेम का उल्लेख करते हैं। ‘चिनगारी°’, ‘उलझन’ और ‘दूरियाँ’ में लेखक ने शिक्षित आदिवासी महिलाओं की मनोभावनाओं को पढ़ने का प्रयास किया है। इसी तरह ‘केस’, ‘हँड़िया नहीं बेचूँगी मैं’, ‘कर्ज’ आदि कहानियों में आदिवासी समाज के विभिन्न पहलुओं को दर्शाया गया है। ‘चींची’ और ‘उज्जवल मणि’ के साथ ‘कर्ज’ व ‘धुंध’ में सामाजिक जीवन के विभिन्न पहलु हैं, तो ‘इंजोत’ में एक नयी दिशा तलाशने का प्रयास लेखक ने किया है ।
दूसरा विश्व युद्ध समाप्त हो चुका था। इसके बावजूद शान्ति नहीं थी। अँग्रेजों के विरुद्ध गाँधी जी की अगुवाई में भारतीय अपना आन्दोलन जारी किये हुए थे। अँग्रेजों को विश्व युद्ध के दौरान जापानियों से कड़ा मुकाबला करना पड़ा था। अंडमान निकोबार में भी जापानी फौज घुस आयी थी। उनकी बमबारी के कारण अँग्रेज सेना को पीछे हटना पड़ा था। ब्रिटिश शासन हर हालत में इस टापू को अपने कब्जे में रखना चाहता था क्योंकि समुद्र मार्ग से व्यापार करने और अपने साम्राज्य को बढ़ाने में यह टापू महत्त्वपूर्ण था। भारत में थोड़ी शान्ति हुई तो छोटानागपुर से हजारों की संख्या में आदिवासी मजदूरों की बहाली टापु में काम करने के लिए होने लगी। लदुरा मुंडा भी उन मजदूरों में शामिल हो गया था। उसके साथ दस साल का मांगु भी अंडमान चला आया। यहाँ के जंगलों को देखकर मांगु बहुत खुश हुआ था। यहाँ के जंगलों में लम्बे और मोटे पेड़ों की भरमार थी। उसके पास गुलेल था। वह गिलहरियों और चिड़ियों का शिकार करने लगा। उसका बाप लदुरा अन्य लोगों के साथ पेड़ काटने का काम करने लगा। छोटानागपुर में मजदूरी के नाम पर मात्र दो आना ही दिहाड़ी मिलता था। यहाँ उसे चार आना हर रोज मिलने लगा। सरकार की ओर से मजदूरों को चावल और दाल भी सस्ते में मिल जाता था। मांगु की माँ जाम्बी भी काम पर जाती, तो उसे भी कुछ मिल ही जाता था। अपने माँ-बाप के साथ मांगु खुश था वहाँ। उसके गाँव मरंगहदा के साथ डाड़ीगुटु, हकाडुआ, तिलमा आदि गाँव के लोग भी उनके साथ ही झोपड़ियों में रहते थे। शाम को वे परम्परागत शराब हँड़िया पीकर अपनी दिन-भर की थकान मिटा लेते। मंगरा तो अपने साथ एक ढोलक और नगाड़ा भी लेता आया था गाँव से। वह रात को हँड़िया पीने के बाद अपने अन्य दोस्तों के साथ दो-चार मुंडारी जदुर जतरा गीत गाकर मन का बोझ हलका कर लेता। जशपुर कुनकुरी की ओर के दो-तीन उराँव युवक भी अपने साथ माँदर लेकर टापू मजदूरी करने आये हुए थे। वे भी मुंडा लोगों के साथ मेल-जोल बढ़ाने लगे थे। लदुरा का पूरा परिवार टापू में कुछ ही महीनों में रच-बस गया।
… इसी पुस्तक से …