Udhar Bhi Hain : Idhar Bhi Hain (Prose Satire)
उधर भी हैं : इधर भी हैं (व्यंग्य संग्रह)

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उधर भी हैं : इधर भी हैं (व्यंग्य संग्रह)

Udhar Bhi Hain : Idhar Bhi Hain (Prose Satire)
उधर भी हैं : इधर भी हैं (व्यंग्य संग्रह)

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Author(s) — Suresh Acharya
लेखक — सुरेश आचार्य

Editor(s) — Laxmi Pandey
संपादक — लक्ष्मी पाण्डेय

| ANUUGYA BOOKS | HINDI| 286 Pages | Hard BOUND | 2023 |
| 6 x 9 Inches | ISBN : 978-93-95380-00-3 |

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Description

जेल के एक कोने में तीन कैदियों ने एक-दूसरे से परिचय करते हुए परस्पर हाथ मिलाए। एक ने कहा मैं तो राजनैतिक बन्दी हूँ। दरअसल मैं रामलाल का चुनाव-प्रचार कर रहा था। एक जगह विरोधियों से झंझट हो गई उन्हें निपटाकर कल ही यहाँ आया हूँ। खैर मैं ज्यादा रुकने वाला नहीं हूँ। आज शाम या कल सबेरे तक जमानत हो जाएगी। दूसरे ने कहा, मैं क्या कोई अपराधी हूँ। भैया, मैं भी पोलिटिकल प्रिजनर हूँ। मैं रामलाल के विरोध में चुनाव-प्रचार कर रहा था। दो-तीन नेता आँखें दिखाने लगे। उसने दाएँ हाथ की चुटकी बजाते हुए कहा कि, एक को निपटा दिया है। मुझे भी ज्यादा नहीं रुकना आज-कल में बेल-आउट हो जाऊँगा। तीसरे ने चिन्तित मुद्रा में उन्हें देखकर हाथ जोड़े और कहा–भाइयों, मैं ही रामलाल हूँ।
एक समय था जब पाकिस्तान, बंगलादेश, सीलोन और बर्मा, भारत कहलाते थे। कभी इसी महाभारत का गुणगान करते हुए रवीन्द्रनाथ टैगोर ने गाया था–

हेथाय आर्य हेथा अनार्य, हेथाय द्राविड़ चीन।
शक हूण दल पाठान मोगल, एक देहे होलो लीन॥

पढ़कर रोमांचित हो उठता हूँ। कभी घोड़े दौड़ाते हुए आर्य, अनार्य, द्रविड़, मंगोल, शक, हूण, पठान और अन्त में मुगल योद्धा यहाँ आए होंगे। जाहिर है इतनी जातियाँ जब यहाँ आई होंगी तो उनके वीर, महाजन, विद्वान सभी आए होंगे। जब सभी लोग यहाँ आ गए तो इन जातियों के लुच्चे कहाँ गए। तय है कि वे भी साथ-साथ आए होंगे। माहौल बनाते, देखते-समझते रहे होंगे। सारी जातियों के बाद अंग्रेज आए। पहले आने वाली सारी जातियाँ यहीं रच-बस गईं। अंग्रेज चले गए, मगर जाते-जाते वे भी अपनी लुच्चई यहीं छोड़ गए। ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आवे। सारी जातियों के दबे-पिसे लुच्चों को उन्होंने नई मंत्र-दीक्षा, नया स्वरूप और नया उत्साह प्रदान किया। उन्हें गए लगभग पचास वर्ष होने को आए मगर आज भी उनका प्रभाव यथावत है। सारे राजनैतिक दल, सभी राजनीतिज्ञ, सैद्धान्तिक और समाजशास्त्री माथे पर हाथ धरे बैठे हैं। सबके साथ कोई-न-कोई लुच्चा लटका है उनका प्रिय पालक-बालक बना हुआ। तुलसीदास ने कभी कहा था–

गगन चढ़ै रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलै नीच जल संगा।।
धूम कुसंगति कारिख होई। लिखई पुरान मंजु मसि सोई॥

ऊपर जाने वाली हवा के साथ धूल आसमान पर जा चढ़ती है। वही नीचे की ओर बहने वाले जल के साथ मिलकर कीचड़ में बदल जाती है। जो धुआँ कुसंग में पड़कर कालिख हो जाता है, वही स्याही में बदलकर सुन्दर ग्रन्थों की रचना करता है….

…इसी पुस्तक से…

Additional information

Weight 750 g
Dimensions 9.5 × 6.5 × 1 in
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