Sabhyata ke Gunsutra (Collection of Peotry) by Shiromani Mahto
सभ्यता के गुणसूत्र (कविता संग्रह – शिरोमणि महतो)

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सभ्यता के गुणसूत्र (कविता संग्रह – शिरोमणि महतो)

Sabhyata ke Gunsutra (Collection of Peotry) by Shiromani Mahto
सभ्यता के गुणसूत्र (कविता संग्रह – शिरोमणि महतो)

199.00240.00

10 in stock

Author(s) —  Shiromani Mahto
लेखक — शिरोमणि महतो

| ANUUGYA BOOKS | HINDI| 112 Pages |

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Description

हिन्दी के प्रख्यात कवि श्री शिरोमणि महतो का यह नया संग्रह ‘सभ्यता के गुणसूत्र’ नवाचार और नव सभ्यता समीक्षा का अनुपम उदाहरण है। उन्होंने न केवल नयी ज़मीन तोड़ी है बल्कि पहले से जुते हुए खेतों में भी नयी फसल उगायी है। सुदूर गाँवों, जंगलों, आदिवासी समाज के अब तक अप्राप्य रहे जीवन प्रसंगों को शिरोमणि महतो ने यहाँ काव्य में बदलने का यत्न किया है। ‘कटोरा में चाँद’, कुंदा और पैदल चल रहे लोग ऐसी ही निर्मम स्थितियाँ हैं। कवि की भाषा भी सबसे भिन्न है। स्वयं कवि के पहले संग्रहों से भिन्न और परिपक्व। कहन की शैली लोककथाओं की याद दिलाती है। लेकिन कवि की मुख्य चिंता सामान्य जन हैं और उनका निरंतर क्षरित होता जीवन। फिर भी उनमें जीवटता है, जैसे कि ‘जो पदक से चूक गयी’ कविता में। सबसे प्रभावशाली कविता है ‘गुणसूत्र’ जो निश्चय ही आज की सर्वाधिक क्रांतिकारी कविताओं में शुमार की जाएगी। ‘पानी में इंद्रधनुष’ भी ऐसी विलक्षण कविता है। जैसे कि ‘ढीला हेरना’ विस्मित कर देने वाली रचना है।

–अरुण कमल, पटना

शिरोमणि महतो हिंदी के उन कवियों में हैं जिनकी कविता में आमजन और जनजातीय समाज की संस्कृति, उनके संघर्ष और जिजीविषा अभिव्यक्त होती है। उनकी कविताओं में गहरी स्थानीयता है। वे जिस परिक्षेत्र के कवि हैं, उस इलाके में कविता की आवाजाही बहुत कम है। वहां की शब्दावलियां, बिम्ब और मिथक हिंदी कविता में विरल हैं। जब से कविता का शहरीकरण हुआ है, इस तरफ कम कवियों ने ध्यान दिया है। शिरोमणि अपने ग्रामीण समाज के पक्ष में जो कुछ लिखते हैं उसमें तकलीफ के साथ सम्वेदना भी है। उन्होंने उस क्षेत्र की ध्वनियों और भाषा को शिद्दत के साथ प्रस्तुत किया है।
वे अपनी कविता में कोई वितान नही बांधते बल्कि उसे सहजता के साथ लिखते हैं। यह सहजता उनकी कविता का प्राण तत्व है।
वे अपनी कविता में कोई मोहक बिम्ब नही रचते वरन यथार्थ के साथ रूबरू होते हैं। आधुनिक सभ्यता ने जिस तरह से लोकसमाज को विच्छिन्न किया है, वह उनकी कविता में जहां तहां दिखाई देता है। वे अपनी कविता ‘सभ्यता के गुणसूत्र’ में लिखते है – ‘धरती के शरीर में / शिराओं की तरह / बहती नदियों में बहता हुआ जल / शिराओं का लहू है / नदियां सभ्यताओं की जननी हैं / उनके बहते जल में सभ्यताएं संचरण करती हैं।’ इससे अलग उनकी कविता ‘चाहना’ का एक अंश देखे – ‘गौरैया जैसे चहकती है घर की मुंडेर पर / वैसे तुम चमको मेरे दुखों के ढेर पर।’

– स्वप्निल श्रीवास्तव, फैजाबाद, उत्तर प्रदेश

 

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