LOCKDOWN (Upnyas)
लोकडाउन (उपन्यास)

190.00350.00

Author(s) — Laxmi Pandey
लेखिका — लक्ष्मी पाण्डेय

| ANUUGYA BOOKS | HINDI| 168 Pages |
| Binding Type : Paper Back & Hard Bound |

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Description

लक्ष्मी पाण्डेय

डॉ. लक्ष्मी पाण्डेय, डी.लिट्., पूर्व सदस्य, हिन्दी सलाहकार समिति, अ.का.मं. भारत सरकार। जन्म: 10 मार्च 1968, धारना कलॉ, सिवनी, (म.प्र.)। शैक्षणिक योग्यता : बी.एससी., एम.ए. हिन्दी, यू.जी.सी. स्लेट, पीएच.डी., डी.लिट्.। एक अंतरराष्ट्रीय तथा एकाधिक राष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित। प्रकाशित ग्रंथ : अपरिभाषित, उसकी अधूरी डायरी, इन दो उपन्यासों सहित 35 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित। आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी; आचार्य भगीरथ मिश्र; रस विमर्श; साहित्य विमर्श; निराला का साहित्य तथा आलोचना पर केन्द्रित ‘अर्थात’ पुस्तकें विशेष चर्चित। भाषा विज्ञान, भारतीय काव्यशास्त्र एवं आलोचना संबंधी लगभग दस पुस्तकें देश के अनेक विश्वविद्यालयों में एम.ए. के दूरस्थ शिक्षा पाठ्यक्रमों में सम्मिलित। अनेक पत्रिकाओं का संपादन। अनेक कहानियाँ विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित। आकाशवाणी सागर से कहानियों का प्रसारण। सम्प्रति : अध्यापन, हिन्दी विभाग, डॉ. हरीसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय, सागर, म.प्र.।

पुस्तक के बारे में

‘घर पिंजरा नहीं होते सबके लिए…। पर होते हैं कुछ लोगों के लिए…। संसार में हर बात होती है लेकिन हर बात हर किसी के लिए नहीं होती…लेकिन हर बात किसी-न-किसी के लिए तो होती ही है…।
–हाँ, हर मनुष्य किसी-न-किसी पिंजरे में बन्द है। इस पिंजरे को चेतनावान ही समझ सकता है…हर कोई नहीं… चेतनावान इसे समझ जाता है तो उसकी घुटन बढ़ने लगती है वह इस पिंजरे से बाहर आने के लिए छटपटाता है लेकिन नहीं आ पाता… विवशता उसके पाँवों में जंजीर डाल देती है…
जानती हो… किसी भी ईमानदार, कर्मठ, सत्यनिष्ठ व्यक्ति को चाहे वह नौकरी करता हो, व्यवसाय करता हो, कृषि-कार्य करता हो, जो भी करता हो… उसे अपने कर्मक्षेत्र में और अपने घर-परिवार-समाज में सम्बन्धों का निर्वाह करते हुए जब अपने मूल्यों से समझौता करना पड़े तो उसे कैसी छटपटाहट, कसमसाहट होती है? वह देखता, समझता है कि उसके आसपास छल-कपट का जाल फैला हुआ है। लोग सही को गलत और गलत को सही ठहरा रहे हैं। उन्हें अपने विचित्र तर्कों द्वारा अन्याय को न्यायसंगत ठहराते देखकर ईमानदार, निष्ठावान मनुष्य की अभिव्यक्ति पर, दृष्टि पर ताले लग जाते हैं। अनुभूतियाँ सहमकर कछुआ हो जाती हैं।’

…इसी किताब से…

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