Kanti Kumar Jain — Sansmaran ko Jisne Vara hai
कांति कुमार जैन — संस्मरण को जिसने वरा है
₹650.00
Editor(s) — Suresh Acharya & Laxmi Pandey
| ANUUGYA BOOKS | HINDI| 519 Pages | HARD BOUND | 2014 |
Description
मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन का भवभूति अलंकरण प्रदान करते हुए
“एक ऐसे समय में जब सब कुछ भुलाने का अभियान चल रहा है, कोई याद कराए कि अगले वक्त में भी कोई था, तो बहुत भला लगता है। अपना सच समय रहते कह देना चाहिए। सच को स्थगित नहीं करना चाहिए। सच एक जादू की तरह सिर चढ़कर बोलता है। कान्तिकुमार जैन के सच भी जादू की तरह सिर चढ़े हुए हैं। संस्मरण सिर्फ व्यक्ति को ही स्पष्ट नहीं करते बल्कि उसके माध्यम से विकसित या बिगड़े हुए परिवेश को भी बयान करते हैं। स्थानीयता में जो रचा-बसा है वही सार्वभौम हो सकता है। बड़े लेखक वही हुए जो स्थानबद्ध थे। इस स्थानीयता का जो विश्लेषण और विशद् विवरण प्रो. कान्तिकुमार ने किया है वह अद्भुत है।”
कवि एवं आलोचक अशोक वाजपेयी
सागर
2 मार्च 2013
निर्मला जी को मेरे संस्मरणों से एक शिकायत है। उन्होंने एक बार दिल्ली में मुझसे कहा कि आपके संस्मरणों में ‘क्रुयेलिटी’ होती है। मैंने उनके इस निष्कर्ष का प्रतिकार नहीं किया। वाराणसी के पुरुषोत्तम दास मोदी ने मुझे लिखा कि आपके संस्मरणों में आक्रामकता होती है। मैं मोदी जी के इस आरोप को भी अस्वीकार नहीं करता। मुझे कुछ मित्रों का मत है कि मैं संस्मरण लिखता तो अच्छे हूँ, लेकिन उनमें ‘डिस्टार्शन आफ फैक्ट्स’ बहुत होता है। मैं उनके इस अभिमत का उत्तर नहीं देता। ‘क्रुयेलिटी’ जहाँ अनिवार्य हो वहाँ कु्रयेलिटी से बचना या बचने का प्रयास करना मुझे सत्य-विरोधी और समाज-विरोधी लगता है। आप समाज में अनैतिकता फैला रहे हैं, परिवेश को विषाक्त कर रहे हैं और मैं आपको हर वर्ष क्षमावाणी पत्र भिजवा रहा हूँ, मुझसे यह नहीं सधता। ऐसे मौकों पर मुझे अहिबरन की याद आती है। अहिबरन बैकुण्ठपुर में मेरा सहपाठी था– पाँचवीं से लेकर आठवीं तक। साँप को देखकर वह स्वयं को रोक नहीं पाता था। उसने साँप को देखा नहीं कि उसकी पूँछ पकड़ी, हवा में उसे लहराया, दो-तीन झटके दिये और विषधर के सारे गुरिये तोड़कर उसे लत्ता बना दिया। उसने मुझे भी विषधरों को लत्ता बनाने का कौशल सिखाया था। अपने संस्मरणों में मैं समाज और सामाजिक मूल्य चर्या को डसने वाले विषधरों को क्षमा नहीं कर पाता। अब यदि यह ‘क्रुयेलिटी’ हो तो हो। आक्रामकता इसी ‘क्रुयेलिटी’ का आसंग है। मैं भोपाल में था। एक दिन पत्नी साधना और बेटियों को लेकर इब्राहिमपुरे गया था। पत्नी मखमल के पर्स खरीदना चाहती थीं। ऐन चौराहे पर एक गाय मेरी नन्हीं बेटियों की तरफ लपकी। वह उन्हें अपने सींगों की जद में लेती-लेती कि मैंने गाय के सींग पकड़ लिये और उसका थुथना धरती की ओर झुका दिया। उस मरखनी गाय का बड़ा आतंक था। वह अपने क्षेत्र में अपराजेय थी। उसे उम्मीद नहीं थी कि कोई उसके सींग मरोड़ सकता है। मेरी आक्रामकता से मेरी बेटियाँ घायल होने से बच गयीं। लोगों ने बाद में मुझसे कहा भी कि आपको ऐसा दुस्साहस नहीं करना चाहिए था– गाय आप पर आक्रमण कर देती तो। पर मैं यदि पहिले उसके सींग न मरोड़ देता तो मेरी कोई-न-कोई बेटी अवश्य घायल हो जाती। आक्रामकता मेरे स्वभाव में है। वह बहुत-सी पराजयों से मुझे बचाने में मेरी सहायता करती है–लोग जान जाते हैं कि यह जो कान्तिकुमार है, वह देखने में भले सीधा लगता है, ऐसा सीधा भी नहीं है। रही ‘डिस्टार्शन आफ फैक्ट्स’ की बात तो यह आरोप वे लगाते हैं जो पत्रकार ज्यादा, साहित्यकार कम हैं। कुछ के लिए प्रतिबद्धता अधिक वरणीय है, सत्य कम। उनके लिए यह महत्त्वपूर्ण है कि भारत भवन का निर्माण फलाँ सन् में नहीं, फलाँ सन् में हुआ और रजनीश ने सागर विश्वविद्यालय सन् 56 में नहीं, 57 में छोड़ा। मैं तथ्यों का संस्मरणकार नहीं हूँ–परसाई के पीने-पिलाने का उल्लेख करने से मेरी प्रतिबद्धता क्षत-विक्षत नहीं होती। न ही ऐसा करना मुझे ‘डिस्टार्शन’ लगता है। फिर मैं जहाँ से देखता हूँ, मेरे लिए वह महत्त्वपूर्ण है। आप जहाँ से देखते हैं, वहाँ से दृश्य ठीक वैसा ही नहीं दिखाई देता या दे सकता जहाँ से मैं देख रहा हूँ। फिर अपने-अपने रागद्वेष हैं, श्रद्धा-भक्ति है, विवेचना के चश्मे हैं, अपनी या अपनों की अर्जित छवि को सुरक्षित रखने की चेष्टा है–’डिस्टार्शन आफ फैक्ट्स’ का सम्बन्ध फैक्ट्स से कम, फैक्ट्स से नि:सृत किये जाने वाले निष्कर्षों से अधिक है। मैं अडिय़ल नहीं हूँ। कोई मेरी गलती बताये तो मैं उसे स्वीकार कर लेता हूँ।
…इसी पुस्तक से…