Description
पुस्तक के बारे में
झारखंड संघर्ष की धरती रही है। यहाँ के आदिवासी-मूलवासी झारखंडी जनता ने अँग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता की पहली लड़ाई लड़ी थी। ‘झारखंड में विद्रोह का इतिहास’ नामक इस पुस्तक में 1767 से 1947 तक हुए संघर्ष का जिक्र है। धालभूम विद्रोह के संघर्ष से कहानी आरम्भ होती है। उसके बाद चुआड़ विद्रोह, चेरो विद्रोह, पहाड़िया विद्रोह, तमाड़ विद्रोह, तिलका माँझी का संघर्ष, कोल विद्रोह, भूमिज विद्रोह, संताल विद्रोह, बिरसा मुंडा का उलगुलान आदि सभी संघर्ष-विद्रोहों के बारे में इस पुस्तक में विस्तार से चर्चा की गयी है। संताल विद्रोह के तुरन्त बाद ही यानी 1857 में झारखंड क्षेत्र में भी सिपाही विद्रोह हुआ। झारखंड के वीरों ने इस विद्रोह में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। राजा अर्जुन सिंह, नीलाम्बर-पीताम्बर, ठाकुर विश्वनाथ शाही, पांडेय गणपत राय, उमराँव सिंह टिकैत, शेख भिखारी आदि उस विद्रोह के नायक थे और इस पुस्तक में उनके संघर्ष के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है। पुस्तक में पोटो हो, चानकु महतो, तेलंगा खड़िया, सरदारी लड़ाई, टाना भगतों के आंदोलन, गंगानारायण सिंह, बुली महतो के संघर्ष का भी जिक्र है। बिरसा मुंडा के एक सहयोगी गया मुंडा और उनके परिवार के संघर्ष का जीवंत विवरण दिया गया है। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में झारखंड के सेनानियों का भी वृत्तांत है। प्रयास है कि झारखंड के वीरों और उनके संघर्ष की जानकारी जन-जन तक पहुँचे और कोई भी विद्रोह का इतिहास छूट न जाये। इस पुस्तक की खासियत यह है कि सभी विद्रोहों-संघर्षों का प्रामाणिक विवरण एक जगह दिया गया है। इस प्रकार की पुस्तक की कमी खल रही थी। झारखंड में जल-जंगल-जमीन के अधिकार, अपनी अस्मिता और भारत मुक्ति आंदोलन की लड़ाई को भी समाहित किया गया है, ताकि पुस्तक का क्षेत्र और व्यापक हो जाये।
स्वाधीनता आंदोलन में भी झारखंड का योगदान काफी सराहनीय रहा। … झारखंड क्षेत्र में जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी की सरकार शासक, शोषक और राजनीतिक विधाता के रूप में स्थापित हुई तब प्रतिक्रिया स्वरूप झारखंड के स्वाभिमानी योद्धाओं ने तुरन्त उसका प्रतिवाद किया, उनके विरुद्ध आंदोलन किये, जो ब्रिटिश शासन से मुक्ति के लिए जनक्रांति थी। झारखंड में अँग्रेजों के खिलाफ हर विद्रोह भारत मुक्ति संग्राम का ही रूप था। सन् 1857 का सिपाही विद्रोह झारखंड के विद्रोहों से उपजी राष्ट्रीय चेतना का परिणाम था। इसके पहले झारखंड में कई विद्रोह हो चुके थे। …
झारखंड के विद्रोहों और क्रांतिकारी लड़ाइयों का सिंहावलोकन एवं विश्लेषण करने पर यह निष्कर्ष अनायास ही निकल आता है कि इतिहासकारों ने इनके साथ सौतेला व्यवहार किया। झारखंडी संघर्षों की स्थिति हमेशा क्षेत्रीय ही बनी रही। भारत के इतिहास में ब्रिटिश सत्ता से सबसे ज्यादा, निरन्तरता, अनवरतता के साथ लड़ाई झारखंड में ही लड़ी गयी। अँग्रेज यहाँ कभी भी निर्विरोध शासक के रूप में प्रति स्थापित नहीं हो पाये। यह विश्लेषण एवं शोध का विषय है कि वे कौन से कारण थे जिनके चलते ब्रिटिश साम्राज्य अपनी पूरी शक्ति, क्षमता एवं बौद्धिक कुशलता के बावजूद झारखंड पर कभी अपना पूर्ण आधिपत्य नहीं जमा पाया। … अपनी भूमि, वनों, पर्वतों, नदियों के साथ पवित्र भक्ति का भाव एवं इनका ईश्वर तुल्य आदर एवं सम्मान करने का विलक्षण गुण। यही कारण थे कि झारखंड के लोगों ने किसी भी विदेशी आक्रमणकारी को, चाहे वह मुगल हों या अँग्रेज, अपने भू-भाग में आधिपत्य जमाने नहीं दिया।
पुस्तक में चेरो विद्रोह, पहाड़िया विद्रोह, घटवाल विद्रोह, तमाड़ विद्रोह के साथ-साथ ‘स्वाधीनता आंदोलन में झारखंड’ शामिल है। इसका उद्देश्य है कि आनेवाली पीढ़ी ‘झारखंड में विद्रोह का इतिहास’ और स्वाधीनता संग्राम को विस्तार से समझ सके। उन्हें पता चले कि शोषण के खिलाफ लड़ाई व जल, जंगल और जमीन की रक्षा के लिए यहाँ के लोगों ने कितनी कुर्बानियाँ दी हैं।
… इसी पुस्तक से…