Darshan ke Sandarbh
दर्शन के सन्दर्भ
₹190.00 – ₹399.00
Author(s) — Saroj Kumar Verma
Description
पुस्तक के बारे में
मनुष्य कल से अन्यथा आज जैसा, जिस रूप में है, वह ज्ञान की उन्हीं प्रविधियों के कारण है और आज से अन्यथा कल जैसा, जिस रूप में होगा, वह भी ज्ञान की इन्हीं प्रविधियों के कारण होगा। ज्ञान की इन्हीं प्रविधियों में एक प्रविधि दर्शन भी है, जो जीवन को उसके मूल में इसलिये जानना-समझना चाहता है ताकि जीवन अपना मुकम्मल आकार ले सके, व्यापक विस्तार पा सके।
इस मूल में जानने-समझने की प्रतिबद्धता के कारण दर्शन अन्य प्रविधियों की तरह स्थूल न होकर इतना सूक्ष्म हो जाता है कि उसे मूर्त घटनाओं के तल पर आने के बहुत पहले अमूर्त अवधारणाओं के स्तर पर पहचानना-पकड़ना पड़ता है। यह ठीक वैसे ही होता है जैसे कोई चित्रकार कैनवस पर किसी चित्र को उकेरे जाने के पूर्व अपने जेहन में उसे आकार लेते हुए पहचानता है या कोई अभियंता जमीन पर किसी इमारत को बनाने के पहले अपने दिमाग में उसके नक्शे को निर्मित होते हुए पकड़ता है। यह चित्र या यह इमारत यद्यपि कि इस अवस्था में अत्यंत धुंधला और निहायत अस्पष्ट होता है, परंतु, धीरे-धीरे वह साफ और स्पष्ट होता जाता है और अंततः मुकम्मल चित्र और ठोस इमारत की शक्ल ले लेता है। इसी तरह मूर्त घटनाओं के तल पर आने के पूर्व अमूर्त दार्शनिक अवधारणायें भी धुंधुली और अस्पष्ट होती हैं, इसी हद तक कि बहुत गौर से देखने के बावजूद वे बार-बार विलुप्त-सी हो जाती है
इसी पुस्तक से
यद्यपि भारतीय चिन्तन-परम्परा के लिए अहिंसा अत्यन्त प्राचीन है। यहाँ इसकी जड़ें वेदों के पूर्व ढूँढ़े जा सकते हैं और वेदों में भी निश्छल भोगवादी प्रवृत्ति की प्रधानता होने के बावजूद इसके सूत्र स्पष्टतया दिखाई देते हैं। इस तथ्य का उल्लेख करते हुए रामधारी सिंह ‘दिनकर’ लिखते हैं– “भारत में अहिंसा की परम्परा प्राग्वैदिक परम्परा थी और उसके बीज वेदों में भी थे। यह ठीक है कि पुराहित-वर्ग यज्ञों का प्रबल समर्थक था और पशुओं की हत्या को वह रोकना नहीं चाहता था, किन्तु, समाज में तब भी ऐसे लोग मौजूद थे, जो इस क्रूर कर्म से घृणा करते थे और चाहते थे कि ऐसा कोई धर्म समाज में प्रवर्तित किया जाये जो अहिंसा के अनुकूल हो। ऐसे ही लोगों में हम उनकी गणना करेंगे, जिन्होंने उपनिषदों में यज्ञवाद की निन्दा की अथवा जिन्होंने संसार छोड़कर वैराग्य ले लिया या जो वनों में रहने लगे। जैन तीर्थंकरों और बुद्धदेव का जन्म भी नहीं होता अगर भारतीय परम्परा में अहिंसा, बिल्कुल अनुपस्थित रही होती। ब्राह्मण-ग्रन्थों में केवल “सर्वमेधे सर्वम् हन्यात्” (सर्वमेध यज्ञ में सब कुछ मारा जा सकता है) ही नहीं, “मा हिंस्यात् सर्वभूतानि” (किसी भी जीव को मत मारो) का भी आदेश था।
अनुक्रम
भूमिका
1. भारतीय दर्शन का भावी स्वरूप
2. महावीर की अहिंसा : विश्व-शान्ति का दार्शनिक आधार
3. अद्वैत दर्शन और मानव उत्कृष्टता : अन्त:सम्बन्ध की प्रासंगिक तलाश
4. भारतीय-आन्दोलन के दार्शनिक आधार
5. नाथपन्थ के समन्वयवादी सरोकार
6. नैतिकता का तात्त्विक आधार : आचार-परिवर्तन की कीमिया
7. धर्म और विज्ञान : समन्वय का व्यावहारिक समीकरण
8. भारतीय दार्शनिक परम्परा में यन्त्रवाद एवं प्रयोजनवाद
9. भूमंडलीकरण बनाम वसुधैव कुटुम्बकम् : मूल्यों का सांस्कृतिक विमर्श
10. पर्यावरण संकट : एक दार्शनिक विमर्श
11. मानव अधिकार के दार्शनिक सिद्धान्त
12. स्त्री सशक्तीकरण : भारतीय सन्दर्भ
Additional information
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