Bhartiya Baudhikta aur Swadesh Chinta : Pichali do Shatabdiyan
भारतीय बौद्धिकता और स्वदेश चिन्ता : पिछली दो शताब्दियाँ

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भारतीय बौद्धिकता और स्वदेश चिन्ता : पिछली दो शताब्दियाँ

Bhartiya Baudhikta aur Swadesh Chinta : Pichali do Shatabdiyan
भारतीय बौद्धिकता और स्वदेश चिन्ता : पिछली दो शताब्दियाँ

399.00

Author(s) — Rupa Gupta
लेखक — रूपा गुप्ता

| ANUUGYA BOOKS | HINDI | Total 223 Pages | 6.5 x 9.5 inches |

 

Description

पुस्तक के बारे में

“अँग्रेज विदेशी हैं, उन्हें यहाँ से चले जाना है”–भारतेन्दु का यह दृढ़ विश्‍वास था। अपनी अनेक उपयोगिताओं के उपरान्त भी अँग्रेज देश को दिनों-दिन दरिद्र किये दे रहे हैं। देश की जनसंख्या बढ़ रही है और आमदनी घट रही है– “मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट देखने से स्पष्‍ट होता है कि मनुष्य दिन-दिन यहाँ बढ़ते जाते हैं और रुपया दिन-दिन कमती होता जाता है। तो अब बिना ऐसा उपाय किये काम नहीं चलेगा कि रुपया भी बढ़े और वह रुपया बिना बुद्धि न बढ़ेगा। भाइयों, राजा-महाराजाओं का मुँह मत देखो, मत यह आशा रखो कि पंडित जी कथा में कोई ऐसा उपाय बतलावैंगे कि देश का रुपया और बुद्धि बढ़े। तुम आप ही कमर कसो, आलस छोड़ो। कब तक अपने को जंगली हूस मूर्ख बोदे डरपोकने पुकरवाओगे। दौड़ो इस घुड़दौड़ में जो पीछे पड़े तो फिर कहीं ठिकाना नहीं है। ‘फिर कब राम जनकपुर ऐहैं’। अब की जो पीछे पड़े तो फिर रसातल ही पहुँचोगे।” (भारतेंदु समग्र, पृ. 1011)
किन्तु बंकिमचन्द्र का मत इससे भिन्‍न है। वे नहीं मानते कि अँग्रेज इस देश की सम्पत्ति का हनन कर रहे हैं। बल्कि वे क्रमवार तर्क देकर सिद्ध करते हैं कि बंगाल में धन वृद्धि ही हुई है और अँग्रेजों ने कुछ लिया नहीं बल्कि कुछ दिया ही। यूरोप के किसी राज्य से तुलना करने पर बाँग्ला देश निर्धन जरूर है, लेकिन पूर्वापेक्षा बाँग्ला देश अभी भी निर्धन है, इस प्रकार की विवेचना करने का कोई कारण नहीं है। बल्कि इस समय पूर्वापेक्षा देश के धन में जो वृद्धि हुई है उसके अनेक प्रमाण मौजूद हैं।
“… विदेशी वणिक और राजपुरुष देश का धन बटोरकर ले जा रहे हैं, इसलिए देश में धन नहीं रह पा रहा है। इस प्रसंग में पहले विदेशी वणिकों के विषय में चर्चा कर लें।
जो यह बात कहते हैं उनमें सबके कहने का अर्थ उपार्जन कर रहे हैं, इसलिए इस देश का रुपया लिये जा रहे हैं। जिस रुपये में उनका लाभ है, वह रुपया इस देश का है, लगता है यही उनके कहने का उद्देश्य है।” (बंकिमचन्द्र के प्रतिनिधि निबन्ध, पृ. 69)

… इसी पुस्तक से…

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में भारतीय मध्यवर्ग के विस्तार की संभावनाएँ तेजी से उभरीं। सरकारी नीतियों और सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक परिवर्तनों से भारत के विभिन्न भागों में ‘वर्नाक्यूलर इंटेलैक्चुल’ एक महत्त्वपूर्ण वर्ग के रूप में उभरा। यह वर्ग भारतीय भाषाओं में स्थानीय और सांस्कृतिक गतिविधियों से ‘लोक’ से जुड़ा। पढ़े-लिखे वर्ग ने आपस में एक सामूहिक कल्पनाजगत तैयार किया जिसने धीरे-धीरे समाज के उन हिस्सों को भी प्रभावित करना आरम्भ किया जहाँ शिक्षा का लाभ कम या न के बराबर पहुँचा था। यह शिक्षित वर्ग अपनी परम्परा से भी जुड़ा हुआ था। इस ‘देशी बुद्धिजीवी’ या ‘वर्नाक्यूलर इंटैलिजेन्शिया’ के उद‍्भव को ‘इंग्लिश एजूकेटेड इंटैलिजेन्शिया’ के रूप में चिन्हित करना सरासर गलत है।
…अधिक पिछड़ा कहलाने वाला समाज इतिहास में अपनी लोक चेतना के साथ अधिक पीछे तक जाता है जबकि आधुनिक शिक्षा और सुविधा सम्पन्न वर्ग अपनी कहानी आधुनिक काल से आरम्भ करता है। लोक अपनी भक्ति, मिथक, किंवदंती, चमत्कार यहाँ तक कि अंधविश्‍वास के सहारे अपने निजी इतिहास से जुड़ जाता है। आधुनिक मन इसे स्वीकार न कर पाने के कारण प्रश्‍नाकुल हो जाता है, इसीलिए बीसवीं-इक्‍कीसवीं सदी के बुद्धिजीवियों ने सबसे अधिक सवाल-जवाब अपनी पिछली दो शताब्दियों से किये हैं। अपनी समस्याओं की जड़ उसे पिछली सदियों, विशेषकर उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के प्रथभार्द्ध में दिखाई पड़ती है। वह इन सदियों के विचारकों से सहमत और संतुष्ट नहीं ठीक जैसे वे अपनी पिछली सदियों से प्रश्‍न कर रहे थे।
…इस पुस्तक के आलेख मुख्यत: इसी काल पर लिखे गये हैं। इनमें शताब्दियों के आपसी संवाद को समेटने का प्रयास है। रही बात कम या अधिक मानवीय होने की तो इक्‍कीसवीं सदी को इस बिन्दु पर अहंकार करने का कोई अधिकार नहीं क्योंकि आज भी परिवर्तन की जितनी चीख-पुकार है समाज में उसकी समान परिणति प्रतिफलित होती नहीं दिखती।

Additional information

Weight 500 g
Dimensions 10 × 7 × 1 in
Binding Type

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