Bekhudi Mein Khoya Shahar — Ek Patrakar ke Notes
बेखुदी में खोया शहर — एक पत्रकार के नोट्स

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Author(s) —  Arvind Das
लेखक — अरविन्द दास

| ANUUGYA BOOKS | HINDI| 183 Pages | 3rd Revised Edition 2022|
| 6 x 9 Inches | 400 grams |

Description

अरविंद दास

‘बेख़ुदी में खोया शहर: एक पत्रकार के नोट्स’ और ‘हिंदी में समाचार’ (शोध) के लेखक। ‘रिलिजन, पॉलिटिक्स एंड मीडिया: जर्मन एंड इंडियन पर्सपेक्टिव्स’ किताब के संयुक्त संपादक। डीयू से अर्थशास्त्र की पढ़ाई, आईआईएमसी से पत्रकारिता में प्रशिक्षण और जेएनयू से हिंदी साहित्य में एमफिल, पत्रकारिता में पीएचडी। एफटीआईआई, पुणे से फिल्म एप्रिसिएशन कोर्स और एनसीपीयूएल से उर्दू में डिप्लोमा। एमफिल-पीएचडी के दौरान जेएनयू में यूजीसी के रिसर्च फेलो और जर्मनी के जिगन विश्वविद्यालय में डीएफजी के पोस्ट-डॉक्टरल फेलो रहे। देश-विदेश में मीडिया को लेकर हुए सेमिनारों में शोध पत्रों की प्रस्तुति। भारतीय मीडिया के विभिन्न आयामों को लेकर जर्मनी के विश्वविद्यालयों में व्याख्यान। बीबीसी के दिल्ली स्थित ब्यूरो में सलाहकार और स्टार न्यूज में मल्टीमीडिया कंटेंट एडिटर रहे। फिलहाल करेंट अफेयर्स कार्यक्रम बनाने वाली प्रतिष्ठित प्रोडक्शन कंपनी आईटीवी (करण थापर), नयी दिल्ली के साथ प्रोड्यूसर के रूप में जुड़े हैं। सिनेमा और संस्कृति पर ‘प्रभात खबर’ में कॉलम। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, ऑनलाइन वेबसाइट के लिए नियमित लेखन। ईमेल : arvindkdas@gmail.com

पुस्तक के बारे में

यह किताब वैचारिक लेखन में बहुआयामी है। लेखक की संवेदनशील दृष्टि, विषय-वस्तु का दायरा, मार्मिक अंदाज़ और सहज भाषा एक अलग आस्वाद लिए है जिसे लेखन की किसी एक विधा में अंटाया नहीं जा सकता। संकलित लेखों में निजीपन, व्यक्ति विशेष, लोक-शहर के प्रति अनुराग एकाधिक बार है। लंदन, पेरिस, वियना, शंघाई, कोलंबो, दिल्ली, बंगलुरु, पुणे, श्रीनगर के साथ-साथ मैकलोडगंज, मगध, मिथिला व बेलारही, तिलोनिया, तरौनी जैसे गाँव भी हैं। जेएनयू और जिगन विश्वविद्यालय भी है। ‘ग्लोबल’ और ‘लोकल’ की इस घुमक्कड़ी में जहाँ कुछ पहचाने चेहरे हैं, वहीं कुछ अनजाने राही। समंदर की आवाज़ के साथ-साथ डबरा, चहबच्चा की अनुगूंज भी है। होटल-रेस्तरां के साथ-साथ ढाबा भी। इन पन्नों में समंदर पार से लहराती आती रेडियो की आवाज है। उदारीकरण के बाद अखबार के पन्नों पर फैली ‘ख़ुश खबर’ है। ‘न्यूजरूम नेशनलिज्म’ की आहट भी। बॉलीवुड का स्थानीय रंग है, हिंदुस्तानी और लोक संगीत की मधुर धुन है, साथ ही नौटंकी का शोक गीत भी। मिट्टी पर बने कोहबर की ख़ुशबू एक तरफ है, हवेलियों में बिखरते भित्तिचित्र दूसरी तरफ। उदास गिरगिट से बात करता हुआ एक विद्रोही कवि है। हाथ पकड़ कर सिखाने वाला एक कबीरा पत्रकार है। स्वभाव के विपरीत नहीं जाने की सलाह देने वाला एक फक्कड़ फिल्मकार भी। एक तरफ नॉस्टेल्जिया, स्मृति और विस्मृति के गह्वर हैं, दूसरी तरफ वर्तमान का यथार्थ है और भविष्य के रोशनदान भी। उदारीकरण और भूमंडलीकरण के दौर में, 21वीं सदी के दो दशकों के बीच, लिखे गए इन लेखों में एक पत्रकार और शोधार्थी का साझा अनुभव है। वादी स्वर एक ब्लॉगर का है। शैली ‘मैं’ और ‘टोका-टोकी’

पुस्तक के बारे में

‘एक संवेदनशील पत्रकार के अनूठे अनुभव इस किताब में दर्ज हैं। समाज, प्रकृति, लोकरंग, कला-साहित्य और यात्राओं आदि में जीवन का स्पंदन वे खोजते हैं। महसूस करते हैं। बड़ी सहजता के साथ बयान भी करते हैं।’

—ओम थानवी, सलाहकार संपादक, राजस्थान पत्रिका, पूर्व संपादक, जनसत्ता

‘यह किताब एक सजग संवेदनशील लेखक की आंखों-देखी और दिल से महसूस की गई दुनिया के विविधवर्णी शब्दचित्रों का संकलन है। इसकी विशेषता यह है कि इसका एक सिरा निपट गाँव से जुड़ता है, तो दूसरा सिरा धुर वैश्विक से। लेखक ने इसमें प्रत्यक्ष में निहित वास्तविकता को उजागर किया है।’

—हिंदुस्तान

‘यह किताब नई फसल की आमद की तरह है। पन्नों में कविताई ख़ुशबू है। बाबा नागार्जुन की धमक है, मिथिला पेंटिंग की छटा है, अंचल की याद बेतहाशा है। देश है, परदेश में भी।’

—प्रभात खबर

‘पूरी किताब उस संवेदनशील लेखक-पत्रकार की है जो अपने लोक, संस्कृति, भाषा, जन, साहित्य से रूमानी प्रेम करता है। इन लेखों में इन्हें बचाने की जद्दोजहद भी है। इस पूंजीवादी समय में संकट भी इन्हीं के ऊपर है।’

—लोकमत न्यूज़ डॉट इन

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