Description
…पुस्तक के बारे में…
व्यंग्य सामान्य हास्य नहीं है, यह चेतना का प्रतीक है। लोकमंगल, निर्भयता और सच कहने का साहस व्यंग्यकार की कलम की शक्ति है। व्यंग्य अपने समकालीन समाज का दर्पण होता है। यह करुण रस प्रधान होता है क्योंकि यह समकालीन विसंगतियों और विडंबनाओं के फलस्वरूप उपजता है। कालांतर में यह अतीत होकर इतिहास को प्रामाणिक बनाने वाला साक्ष्य बन जाता है कि हाँ, ऐसा हुआ था। व्यंग्य कल्पनाप्रसूत नहीं होता यह सत्य घटनाओं पर केन्द्रित होता है। यह साहित्य की सभी विधाओं में अंतर्निहित होकर प्रवाहित होने वाली भाव सलिला है अभिव्यक्ति शैली है। समाज और संस्कृति जिनके इर्द-गिर्द घूमती हैं स्त्रियाँ वह धुरी हैं। दूसरा पक्ष राजनीति है, जो जीवन के हर क्षेत्र को आच्छादित करती है तथा प्रभावित करती है। इसलिए व्यंग्य के निशाने पर यही दोनों मुख्य रूप से होते हैं। जीवन हो, समाज हो या संसार उसे स्वर्ग या नर्क बनाने के लिए यही दोनों सर्वाधिक उत्तरदायी होते हैं।
स्वतंत्रता प्राप्ति का आठवाँ दशक चल रहा है। आजादी का अमृत काल। हमारे महान राष्ट्र ने उन्नति के सर्वोच्च सोपान तय किए हैं। आर्थिक सुदृढ़ता समाज के हर वर्ग में दिखाई देती है। इन सकारात्मकताओं के साथ विकृतियों का, विरूपताओं का, विडंबनाओं का, विसंगतियों का वैविध्य और प्रतिशत भी बढ़ा है। उच्च वर्ग के उच्च स्तरीय अपराधों ने समाज, राजनीति और न्याय व्यवस्था को आच्छादित कर एक अलग ही हैरान कर देने वाला दृश्य उपस्थित कर दिया है। भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी विकास के साथ समानान्तर यात्रा पर हैं। भ्रष्टाचार निर्गुण ब्रह्म की तरह गहन से गहनतर और व्यापक होता जा रहा है। कानून व्यवस्था के साथ उसका द्विपक्षी संघर्ष जारी है। तू डाल डाल मैं पात-पात। ऐसी स्थितियों में व्यंग्य की भूमिका अहम् हो ही जाती है। व्यंग्य न केवल व्यापक हुआ है बल्कि इसकी प्रासंगिकता बनी हुई है इसलिए भी यह व्यापक होता जा रहा है। हिन्दी गद्य साहित्य की सोलह विधाओं में और हिन्दी पद्य साहित्य की सात-आठ विधाओं में इसका विकास चरम पर ही दृष्टिगोचर हो रहा है। अन्य भाषाओं के साहित्य में भी इसकी उपस्थिति देखी जा सकती है।
व्यंग्यकार समाज सुधारक नहीं होता वह यथार्थ की ओर ध्यान आकर्षित कराने वाला, जगाने वाला, चेतनावान होने का आग्रह करने वाला चौकीदार और निर्देशक होता है। वह इंगित करता है कि कहाँ क्या हो रहा है, जो हो रहा है वह गलत है या सही तथा यह भी कि क्या होना चाहिए। वर्तमान में भारतीय धर्म दर्शन और संस्कृति को ठेंगा दिखाते हुए मानवीय दृष्टिकोण की दुहाई देते हुए न्याय करने के लिए कटिबद्ध न्याय व्यवस्था और समाज समलैंगिकों के विवाह को सम्मानजनक स्वीकृति और अधिकार दिलाने के लिए बेचैन है। लिव-इन-रिलेशनशिप को यह सम्मान और अधिकार प्राप्त हो चुका है।
शिक्षा पद्धति ‘चाट के ठेले’ हो गई है जहाँ जो विषय जब तक रुचे पढ़ो नहीं तो अगले सत्र में विषय बदलकर दूसरा ले लो, पढ़ते-पढ़ते छोड़ दो और फिर जब फुर्सत मिले बचे हुए को खाकर यानी पढ़कर खत्म करो।
…इसी पुस्तक से…