Description
पुस्तक के बारे में
महादेव टोप्पो झारखण्ड व आदिवासी मुद्दों, समस्याओं, विषयों पर लिखने को अपनी कमजोरी बताते रहे है. यह कमजोरी अब उनकी खासियत और पहचान बन गई है. लेकिन, उनके प्रकाशित पुस्तकों की संख्या कम है. “आदिवासी विश्व-दर्शन” उनकी प्रकाशित होनेवाली तीसरी पुस्तक है। इसमें साहित्य, संस्कृति, भाषा, पुस्तक, कला, सिनेमा, महिला के अलावा आदिवासी-वाद्य माँदर को बनाने की प्रक्रिया पर एक आलेख सम्मिलित है। उन्हें डर लगता है कि माँदर खो गया तो आदिवासी भाषा, संस्कृति, इतिहास का रक्षक व सोच और अवधारणा का मूल-आधार खो जाएगा। माँदर की उपयोगिता की बात करते, वे पहले भी कविता – “माँदर का साथ” और लेख ‘बचेगा माँदर, तो बचेगी सुरीली आवाजें, बचेगी भाषा’ – के माध्यम से सावधान कर चुके हैं कि माँदर के खो जाने से आदिवासी-समुदाय की भाषिक, सांस्कृतिक पहचान और अस्तित्व संकटग्रस्त हो सकती है। अब इस संकट को लोग पहचानने और महसूसने लगे हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपने लिखने के कारण की भी चर्चा की है। हरिराम मीणा, अनुज लुगुन, मिथिलेश के किताबों की चर्चा है। पुस्तक में संकलित विविध लेख आदिवासी साहित्य, कला, जीवन और दर्शन आदि में रूचि ऱखनेवाले जिज्ञासु पाठकों, छात्रों, शोधार्थियों आदि के लिए उपयोगी साबित हो सकती है क्योंकि “आदिवासी विश्व-चेतना” के माध्यम से आदिवासी-जीवन संबंधी विविध मुद्दो, विषयों, समस्याओं, संकटों, अंतर्द्वन्द्वों को, वर्तमान वैश्विक-संदर्भों में कुछ अनछुए प्रसंगों को भी समझने का प्रयास किया है।
जंगल अपने दूसरे रूप में धरती की हरियाली, जिजीविषा, उर्वरता और सृजन का माध्यम है। यह आदिवासी के लिए जीवन, सृजन के अलावा भावी पीढ़ी की सुरक्षा का आधार भी है। ये उसके जीवन से जुड़े जरूरी अवयवों की तरह है और उनके जीवन के हर पहलू से एकसूत्र में गुंथे हुए हैं। मनुष्य की धनलोलुपता ने डोडो जैसे अनेक पशु-पक्षियों को नष्ट कर, उनसे जुड़ी प्राकृतिक सृजन-गतिविधियाँ, क्रिया-कलापों को न केवल प्रदूषित और कमजोर किया है बल्कि इसे लगभग नेस्तनाबूद किया है। अब सभ्य मनुष्य को निर्णय लेना है कि, क्या वह सभ्यता और विकास की इसी आत्मघाती, विनाशकारी, आदमखोर, धरतीखोर राह की ओर बढ़े! या थोड़ा ठिठककर, रुककर सोचे कि अब जितना बचा है, इस सुन्दर, ऊर्वर धरती को, भावी-पीढ़ी के लिए बचा ले! इस नेक काम के लिए आदिवासी, विश्व भर में, सदा संघर्ष करता, उसके आगे और बगल में भी खड़ा है. सभ्य और विकसित समाज निर्णय ले कि उन्हें प्रदूषित, गंदी, कमजोर होती धरती चाहिए या स्वस्थ, स्वच्छ, मजबूत, हरी-भरी, उर्वर धरती!
… इसी पुस्तक से…
अनुक्रम
पुन: आभार
चिन्तन
1. आदिवासी विश्व-चेतना
2. इक्कीसवीं सदी के सन्दर्भ में आदिवासियों का पारम्परिक शिक्षण-केन्द्र– धुमकुड़िया
3. आदिवासी समुदायों का जंगल-स्नान और हम सब
4. ग्रन्थ से परे आदिवासियों का धर्म
5. आजादी के सत्तर साल
6. अपनी मातृभाषा के शब्दकोश कितनों के पास होते हैं?
महिलाएँ
7. प्रेरक सिनगी दई और आज की आदिवासी महिलाएँ
भाषा, साहित्य
8. तोलोंग सिकि और कुँड़ुख भाषा का विकास
9. लिखते, पढ़ते, देखते, सीखते रहने के आदिवासी अनुभव
10. लिखने का कारण– क्यों और कैसे बढ़ता गया?
11. आदिवासियों की जनतान्त्रिक मुद्दों, समस्याओं को समझता साहित्य
12. आदिवासी जीवन की झलक–तब और अब के सन्दर्भ में
13. जहाँ सखुआ पेड़ों के छाँव तले सजता है– बहुभाषी नाट्य महोत्सव
14. पंडित रघुनाथ मुर्मू से प्रेरित बाबा तिलका माँझी पुस्तकालय
फिल्म
15. आदिवासियों को देखती, समझती– कुछ फिल्में
त्योहार
16. बदलते समय में सरहुल
17. आदिवासी त्योहार मनाते रहें… ताकि धरती की उर्वरता, निर्मलता बची रहे!
वाद्य, लोक शिल्प
18. झारखंड का लोकप्रिय वाद्य– माँदर
19. झारखंड के लोक-शिल्प
20. कुँड़ुख पेंटिंग को नवजीवन देती–कलाकार सुमन्ती उराँव
खेल
21. मानसिकता बदलें तो अन्तरराष्ट्रीय व विश्व-मंच पर भी और चमक सकते हैं झारखंडी खिलाड़ी
22. ओलम्पिक में भारतीय फुटबॉल टीम का पहला कप्तान भी आदिवासी था
भौगोलिक चिन्ता
23. भौगोलिक निरक्षरता के खतरे
किताबें
24. कुँड़ुख भाषा, संस्कृति और जीवन-दर्शन से परिचित कराता एक कोश
25. झारखंड की पत्रकारिता के संघर्ष, अस्तित्व, भविष्य की पड़ताल करता–मिथिलेश का– ‘बाखबर-बेखबर’
26. कटते जंगल, उभरती नयी सभ्यता और बढ़ते विकास के नये बाघों से जूझते आदिवासी
27. आदिवासियों के प्रति फैली भ्रान्तियों व पूर्वाग्रहों से जूझती ‘हरि राम मीणा’ की किताब–“आदिवासी दर्शन और समाज”
शख्सियतें
28. राधाकृष्ण, आदिवासी और “आदिवासी”
29. कार्तिक उराँव के सोशल इंजीनियरिंग को याद रखना
30. मूक व गुमनाम समाज के हितैषी–डॉ. कुमार सुरेश सिंह
31. झारखंडी शिक्षाविद्– डॉ. निर्मल मिंज जिन्होंने आदिवासी भाषाओं को पढ़ने-पढ़ाने का मौका दिया
32. असमिया कवि हीरेन भट्टाचार्य जिससे एक पूरी पीढ़ी प्रभावित रही
33. आज के सन्दर्भ में, बाघ के विविध रूपों से परिचित कराती है अनुज लुगुन की लम्बी कविता
34. श्रद्धांजलि– पीटर पौल एक्का
कुछ बातचीत
क्रमश : प्रमोद मीणा, अनुज लुगुन एवं राजू सोनी से
35. शेर नहीं, शहर आदमखोर हो गया है
36. विस्थापन की समस्या ने आदिवासियों को सबसे ज्यादा परेशान किया है
37. समकालीन हिन्दी कविता में आदिवासी-विमर्श